श्री मदभगवद गीता | Shri Madbhagawgad Gita
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
38 MB
कुल पष्ठ :
700
श्रेणी :
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No Information available about श्री जयदयालजी गोयन्दका - Shri Jaydayal Ji Goyandka
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)१२
है । चौथे अध्यायके चौबीसवें और परचीसवेंके उत्तरार्मे
ज्ञानयोगका वर्णन है और चौथे अध्यायके छत्तीसतेंसे
उन्चालीसवेंतक्म फलरूप ज्ञानका बणन है। इसी प्रकार
अन्यत्र भी प्रसङ्कानुसार समञ्च लेना चाहिये |
अब, सांस्यनिष्ठा ओर योगनिष्ठावे क्या खस्य है, उन
दोनोंगें क्या अन्तर है, उनके कितने और कौन-कौन-से
अवान्तर मेद् है तथा दोनों निष्ठाण खतन्त्र है अथवा परस्पर
सापेक्ष है, इन निप्राओंके कौन-कौन अधिकारी हैं, इत्यादि
विपयॉपर संश्षेपमे विचार किया जा रहा हैं---
सांख्यनिष्रा ओर योगनिएाका खरूप
( १ ) सम्पूण पदाथ मृगतृष्णाके जख्की भाँति अथवा
खप्रकी सृ सद्दा मायामय होनते मायाके कार्यरूप
सम्पूणं गुण ही गुणों मं बरतते है--इस प्रकार समझकर मन,
इन्द्रिय ओर शरीरके दारा होनेवाले समस्त कर्मोमिं कर्तापनके
अभिमानमे रहित हौना ( ५ । ८-९ ) तथा सबन्यापी
सचिदानन्दघन परमात्माके स्वरूपमें एकी भावसे नित्य स्थित
रहते हुए एक सचिदानन्दघन वासुदेवकें सिता अन्य किसी-
के भी अस्तित्वका भाव न रहना ( १३ । ३० )--यह तो
प्सांख्यनिष्ठा' है | ज्ञानयोगः अथवा “्कर्मसंन्यास' भी
इसीके नाम हैं । और--
( २ ) सब कुछ मगवान्का समझकर सिंद्धि-असिद्धिमें
समभाव रखते हुए, आसक्ति और फलकी इच्छाका त्याग
करके मगबत्-आज्ञाचुसार सब कर्माका आचरण करना
( र। ४७-५१) अथवा श्रद्धा-मक्तिपूवक मन; वाणी और
शरीरसे सब प्रकार भगवानूके रारण होकर नाम; गुण और
प्रभावसहित उनके खरूपका निरन्तर चिन्तन करना ( ६ ।
४७ )--यह ध्यागनिषएठाः हे । इसीका भगवानूने समल्वयोग,
बुद्धियोंग, तद्थकम, मदर्थक्म एवं साचिक त्याग आदि
नामोँसे उल्टेव किया हैं|
योगनिष्ठामे सामान्यरूयुसे अथवा प्रधानरूपसे भक्ति
रहती ह है । गीतोक्त योगनिष्ठा भक्तिमे शुन्य नहीं है । जहाँ
भक्ति अथवा भगवान्का सप्र शन्दोमे उल्टेष नही है ( २।
४७-५१ ) वहाँ भी भगवान्की आज्ञाका पालन तो है
ही---इस दृष्रिसे भक्तिका सम्बन्ध वहाँ भी है ही ।
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कञाननिष्ठाके साधनके लिये भगवान्ने अनेक युक्तिर्या
बतलायी हैं, उन सबका फल एक सचिदानन्दधन परमात्मा-
की प्राप्ति ही है । ज्ञानयोगके अवान्तर भेद कई होते हुए भी
उन्हें मुख्य चार विभागोंमें बाँटा जा सकता है---
(१) जो कुछ है, वह ब्रह्म ही है ।
( २ ५ जो कुछ दश्यवग प्रतीत होता है, बह मायामय है;
वास्तवमे एक सचिदानन्दघन ब्रह्कके अतिरिक्त और कुछ भी
नहीं है
(३ ) जो कुछ प्रतीत होता है, बह सव मेरा ही खूप
है--में ही हूँ ।
( ४ ) जो कुछ प्रतीत होता है; वह मायामय है, अनित्य
हैं, चास्तवमें है ही नहीं; केवल एक नित्य चेतन आत्मा मैं
हु
इनमेंसे पहले दो साथन 'तत्वमसि” महावाक्यके '्तत'
पदकी इदृरिसे हैं ओर पिछले दो साधन 'त्वम! पदकी इृष्टिमे
हैं | इन्हींका स्प्रीकरण इस प्रकार किया जा सकता है ---
( ? ) इस चराचर जगत्में जो कुछ प्रतीत होता है, सत्र
ब्रह्म ही है; कोई भी बस्तु एक सचिदानन्दघन परमात्मासे
भिन नहीं है । कम, कमके साघन एवं उपकरण तथा खयं
कती---सब कुछ ब्रह्म ही है ( ४ । २४ ) । जिस प्रकार
समुद्रमें पड़े हू बफके टेलोंके वाहर और भीतर सब जगह
जल-ही-जठ व्याप्त है तथा ते ढेले स्वयं भी जलरूप ही हैं,
उसी प्रकार समस्त चराचर भूतोंके बाहर-भीतर एकमात्र
परमात्मा ही परिपूण हैं तथा उन समस्त भूतोंके रूपमें भी
वेहीहैं(१३।१५)।
(२) जो कुछ यह द्दयवगं है, उमे मायामय, क्षणिक
एत्र नाराचान् समञ्चकर्---इन सवका अमाव करके केवल
उन सवके अधिष्ठानरूप एकः सचिदरानन्दघन परमात्मा ही
है, और कुछ भी नहीं है---ऐसा समझते हुए मन-बुद्धिकों
भी ब्रह्मवे तद्रूप कर देना एवं परमात्मा एकीभावसे स्थित
हकर उनके अपरोक्षज्ञानद्रारा उनम एकता प्राप्त कर लेना
( “| १७) |
( ३ ) चर, अचर् सव ब्रह्म है ओर बह ब्रह्म मैं हूँ;
इसलिये सव मेरा ही सव्य है-- इस प्रकार विचारकर
सम्पूणं चराचर प्राणियोंको अपना आत्मा ही समझना ।
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