श्री मदभगवद गीता | Shri Madbhagawgad Gita

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Shri Madbhagawgad Gita by श्री जयदयालजी गोयन्दका - Shri Jaydayal Ji Goyandka

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१२ है । चौथे अध्यायके चौबीसवें और परचीसवेंके उत्तरार्मे ज्ञानयोगका वर्णन है और चौथे अध्यायके छत्तीसतेंसे उन्‌चालीसवेंतक्म फलरूप ज्ञानका बणन है। इसी प्रकार अन्यत्र भी प्रसङ्कानुसार समञ्च लेना चाहिये | अब, सांस्यनिष्ठा ओर योगनिष्ठावे क्या खस्य है, उन दोनोंगें क्या अन्तर है, उनके कितने और कौन-कौन-से अवान्तर मेद्‌ है तथा दोनों निष्ठाण खतन्त्र है अथवा परस्पर सापेक्ष है, इन निप्राओंके कौन-कौन अधिकारी हैं, इत्यादि विपयॉपर संश्षेपमे विचार किया जा रहा हैं--- सांख्यनिष्रा ओर योगनिएाका खरूप ( १ ) सम्पूण पदाथ मृगतृष्णाके जख्की भाँति अथवा खप्रकी सृ सद्दा मायामय होनते मायाके कार्यरूप सम्पूणं गुण ही गुणों मं बरतते है--इस प्रकार समझकर मन, इन्द्रिय ओर शरीरके दारा होनेवाले समस्त कर्मोमिं कर्तापनके अभिमानमे रहित हौना ( ५ । ८-९ ) तथा सबन्यापी सचिदानन्दघन परमात्माके स्वरूपमें एकी भावसे नित्य स्थित रहते हुए एक सचिदानन्दघन वासुदेवकें सिता अन्य किसी- के भी अस्तित्वका भाव न रहना ( १३ । ३० )--यह तो प्सांख्यनिष्ठा' है | ज्ञानयोगः अथवा “्कर्मसंन्यास' भी इसीके नाम हैं । और-- ( २ ) सब कुछ मगवान्‌का समझकर सिंद्धि-असिद्धिमें समभाव रखते हुए, आसक्ति और फलकी इच्छाका त्याग करके मगबत्‌-आज्ञाचुसार सब कर्माका आचरण करना ( र। ४७-५१) अथवा श्रद्धा-मक्तिपूवक मन; वाणी और शरीरसे सब प्रकार भगवानूके रारण होकर नाम; गुण और प्रभावसहित उनके खरूपका निरन्तर चिन्तन करना ( ६ । ४७ )--यह ध्यागनिषएठाः हे । इसीका भगवानूने समल्वयोग, बुद्धियोंग, तद्थकम, मदर्थक्म एवं साचिक त्याग आदि नामोँसे उल्टेव किया हैं| योगनिष्ठामे सामान्यरूयुसे अथवा प्रधानरूपसे भक्ति रहती ह है । गीतोक्त योगनिष्ठा भक्तिमे शुन्य नहीं है । जहाँ भक्ति अथवा भगवान्‌का सप्र शन्दोमे उल्टेष नही है ( २। ४७-५१ ) वहाँ भी भगवान्‌की आज्ञाका पालन तो है ही---इस दृष्रिसे भक्तिका सम्बन्ध वहाँ भी है ही । # नख्र निवेदन क यकमा वि त, ^ स 5 ज ५ ल 4 प भ ~ ^ नन न ~न ५. ~ +~ ++ ~ ^ ~ ~ ~ ~ कञाननिष्ठाके साधनके लिये भगवान्‌ने अनेक युक्तिर्या बतलायी हैं, उन सबका फल एक सचिदानन्दधन परमात्मा- की प्राप्ति ही है । ज्ञानयोगके अवान्तर भेद कई होते हुए भी उन्हें मुख्य चार विभागोंमें बाँटा जा सकता है--- (१) जो कुछ है, वह ब्रह्म ही है । ( २ ५ जो कुछ दश्यवग प्रतीत होता है, बह मायामय है; वास्तवमे एक सचिदानन्दघन ब्रह्कके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है (३ ) जो कुछ प्रतीत होता है, बह सव मेरा ही खूप है--में ही हूँ । ( ४ ) जो कुछ प्रतीत होता है; वह मायामय है, अनित्य हैं, चास्तवमें है ही नहीं; केवल एक नित्य चेतन आत्मा मैं हु इनमेंसे पहले दो साथन 'तत्वमसि” महावाक्यके '्तत' पदकी इदृरिसे हैं ओर पिछले दो साधन 'त्वम! पदकी इृष्टिमे हैं | इन्हींका स्प्रीकरण इस प्रकार किया जा सकता है --- ( ? ) इस चराचर जगत्‌में जो कुछ प्रतीत होता है, सत्र ब्रह्म ही है; कोई भी बस्तु एक सचिदानन्दघन परमात्मासे भिन नहीं है । कम, कमके साघन एवं उपकरण तथा खयं कती---सब कुछ ब्रह्म ही है ( ४ । २४ ) । जिस प्रकार समुद्रमें पड़े हू बफके टेलोंके वाहर और भीतर सब जगह जल-ही-जठ व्याप्त है तथा ते ढेले स्वयं भी जलरूप ही हैं, उसी प्रकार समस्त चराचर भूतोंके बाहर-भीतर एकमात्र परमात्मा ही परिपूण हैं तथा उन समस्त भूतोंके रूपमें भी वेहीहैं(१३।१५)। (२) जो कुछ यह द्दयवगं है, उमे मायामय, क्षणिक एत्र नाराचान्‌ समञ्चकर्‌---इन सवका अमाव करके केवल उन सवके अधिष्ठानरूप एकः सचिदरानन्दघन परमात्मा ही है, और कुछ भी नहीं है---ऐसा समझते हुए मन-बुद्धिकों भी ब्रह्मवे तद्रूप कर देना एवं परमात्मा एकीभावसे स्थित हकर उनके अपरोक्षज्ञानद्रारा उनम एकता प्राप्त कर लेना ( “| १७) | ( ३ ) चर, अचर्‌ सव ब्रह्म है ओर बह ब्रह्म मैं हूँ; इसलिये सव मेरा ही सव्य है-- इस प्रकार विचारकर सम्पूणं चराचर प्राणियोंको अपना आत्मा ही समझना । पेज




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