कला विनोद | Kala Vinod

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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चाहिए । साली एक ढंग वा चलेगा मही । भूप को नये ढंग से पेश करना है तो भाषा ही बदलेंगी, भूप नही बदलेगा । वह घटना नहीं वदलेंगी । रागो को रूप वहा है, जैसा आपका रूप है वेसा रागा वा । वह तो दिखना चाहिए पहले । राग क्पडे-वपडे नहीं पहनते । वे सब नगे हैं । बाद में, जव रचना हो जाती है, जब ताल मे आते है वे अलग-अलग कपडे पहनकर आ जाते हैं । मगर शुद्ध रागरूप आपको मालूम नही कया ? बदिश वे याद आए बिना राग तो आता नहीं है समीतकार को । बिना घदिद के, थिना ताल के राग को गाकर सुनाए । खाली राग को । कोई वदिश नही, ताल नही । भाग जाएगे सव । श्ास्प्रीय सगीत की दुनिया प्राय लोकसगीतसे दूर था ऊपर रही है । लेकिन आपका लोकस गीतं से उतना ही गहरा रिदता है जितना शास्त्रीय सगीत से 1 बल्कि मालवी लोकधुनों का एक समचा फाय- भ्रम भी आपने तथार किया है जो कि शास्त्रीय समीत के इतिहास मे एक नयी बात है । आपके गाये कबोर, मीरा आदि के पदों में शास्त्रीय रागो के साथ लोवसगीत का स्पश्च भी जगह-जगह मिलता है। षया आप शास्नीय गायन मे लोकसमीत फा उपयोग रचना को एकः पूणता देने के लिए करते है ? अगर सा है तो शास्त्रीय सगीत मे आपको क्या कोई अघूरापन लगा ? जो परिपूण सगीत है यानी राम सगीत, उसे हम ओर क्या परिपुण कर सकते हैं * उसकी खोज कर सकते हैं। और वह मुझे दिखा लोक्-सगीत मे । हम उसमे भर डाल सकते हैं । उसमे जो भराव हैं--चाहिए, बहुत चाहिए । कसी ने क्या नही है । मैंने पहले भी कहा है, राग वनाये नही जाते, राग बनते हैं । बनाये जाने वाले राग अलग हैं । वे जो पुराने राग रूप हैं, वैसे रुप बनाने के लिए आदमी का प्रयत्न--सिफ समझ हो सकती है, वे बनाये नही जा सकते हैं । पुराने जितने राग हैं, वहुत कम ह, यानी रागो के नाम बहुत होगे, मगर दुद्ध रूप उनका जो है, ऐसे राग बहुत बम हैं । इसलिए मुझे सगीत के तल मे जाने की इच्छा हुई । लोक समीत मे जाने का उद्देश्य यही था । मेरी धारणा ही है कि लोकघुनो पर ही राग-समीतका आधार है । दस-बारह जो राग हैं उससे वने हैं । यह सभी कहते रहे हैं कि शास्त्रीय सगीत लोकघुनों से उपना है । सभवत वह्‌ कते होता है, यह कीभिया आपने कर दिखाया है । कीमिया कंसा ? उसका मूल क्या है वह मुझे समझ मे आ गया । कुछ पहले से बीज गिरे हुए थे । गुरुजी वाले । बबई मे जब मैं सीखता था तो गलती से सगीत का एक नया सौंदय दास्त्र / €




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