रसकलस | Rasakalas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ७ ) लेश है, किंतु दो वह सच्चा कवि । जितने भी सच्चे कवि हुए हैं, सभी ने समाज-हित के लिये झपनी रुचिर रसना से सुधार-रस-धघारा प्रवाहित की है, सभी ने उचित उन्नतिकारी, उपकारी उपदेश देश-समाज को दिये हैं । यही कायें उपाध्यायजी ने भी किये हैं । “रस-कलस” शब्द ही ्ंथ के वश्यं विषय को स्पष्ट रूप से प्रकट कर देता है, इसलिये इस संबंध में यहाँ केवल इतना ही कहना सबंधा अलम्‌ है कि इस भरथमे कान्यके शगार, हास्य, करुण, रौद्र, बोर, भयानक, बीभत्ताद्मुत श्रौर शान्त नामक नवो रसो, उनके ६ स्थायी द्मोर २३ संचारी भावों, विभावो (्रालंबन-जिसके अंतगेत है समस्त नायक नायिका-मेद ओर उनका नख-शिख-वणंन, चनौर उदीपन- जिसके अंदर आते है सखा-सखो-मेद श्रौर कमे, समय, स्थान, प्रकार तथा षट्ऋतु-वशंन) और ४ प्रकार के अनुभावो (जिनके अंदर अंगज, उअयत्नज और स्वभावज हाव-भावादि अलंकार झा जाते हैं) का यथो- चित और यथाक्रम सवाग-पूर्ण सुंदर और सराहनीय विशद वर्णन किया गया है। सबत्र उदाहरण मं जु, सदु, मघुर और मौलिक दिये गये हैं । प्रायः अन्य रस-त्रंथो में शंगार रस का दही विस्तार दिखलाया जाता है ओर विभावाचुभावादि-संबधी उदाहरणो में भी इसी रस को प्रधानता दी जाती है, तथा अन्य रसों का केवल सूदम परिचय मात्र दे दिया जाता है जिससे वाचक ्रंद को यथेष्ट ज्ञान नो हो पाता । यह प्र॑थ इस न्यूनता से सवथा मुक्त होकर समस्त रसो के विशद वणेन से संयुक्त दो अधिक उपयुक्त बन गया है। शंगार रस चूँकि सबं-रस-प्रधान रसराज तथा साहित्य-शिरमौर माना गया है, इसलिये उसके समस्त अंग-परत्यंग का नवरंग ठंग-रजित्त तथा विविध-विचार-जव्यंजित विमल-वासना-वलित, सुकल्पना-कल्लित, अति ललित बणंन किया गया है । केवल कुछ ऐसे ही विषय छोड़ दिये गये हैं जो इतने अश्लील ह कि उनका सवथा सुशिष्ट और सुरुचिमिष्ट बनाना असंभाव्य दी सा ठद्दरता है, जहाँ तनिक भी ऐसे




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