जैन साहित्य का बृहद इतिहास भाग - 3 | Jain Sahity Ka Brihad Itihas Bhag - 3
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
16 MB
कुल पष्ठ :
552
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्रास्ताविक
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मूल प्रथ के रहस्योद्घाटन के लिए उसकी विविध व्याख्या का भष्ययन
अनिवार्य नहीं तो भी आवश्यक तो है ही । जब तक किसी ग्रन्थ फी प्रामाणिक
व्याख्या का सूब्म अवलोकन नहीं किया लाता तब तक उस ग्रथ में रही हुई
अनेक महत्वपूर्ण बातें अज्ञात दी रइ जाती हैं । यह सिद्धान्त जितना बतंमान
कालीन मौलिक ग्र्थो पर लागू होता है उससे कई गुना अधिक प्राचीन भारतीय
साहित्य पर लागू होता है। मूल ग्रय के रहस्य का उद्घाटन करने के लिए
उस पर व्याख्यात्मक साहित्य का निर्माण करना भारतीय ग्रथकारों की बहुत
पुरानी परपरा 8} इछ प्रकार के साहित्य से दो प्रयोजन सिद्ध होते हैं ।
व्याख्याकार को अपनी ठेखनी से प्रंथकार के अभीष्ट अथं का विश्ठेषण के ते
असीम आत्मोल्लास होता है तथा कहीं -कहीं उसे अपनी मान्यता प्रस्तुत करने
का अवसर मी मिलता है । दूसरी ओर पाठक को प्रथ के गूटा्थं तक पहुँचने के
लिए. अनावश्यक अम नहीं करना पढ़ता । इस प्रकार व्याख्याकार का परिश्रम
ख पर उभयके लिए उपयोगी सिद्ध होता है। व्याख्याकार की आात्मतुष्टि के
साथ ही साथ जिशासुओं की तृषा मी शान्त ्ोती है । इसी पवित्र भावना से
भारतीय व्याख्याग्रथौँ का निर्माण हुआ हे | जैन ग्याख्याकारो के हदय भी इसी
भावना से भावित रहे ई।
प्राचीनतम जैन व्याख्यात्मक साहित्य मे आगभिक व्याख्यामो का अति
माहवं स्थान है । इन व्याख्या्ओ षो इम पाँच कोटियों में विभक्त करते हैं «
१. निरयुक्तियाँ ( निज्जुत्ति), २. माध्य ( भास), है. चूर्णियाँ ( चुण्णि ),
४. सस्कृत टीकाएँ ओर ५. लोकमाषाओं में रचित ब्याख्याएँ । आगर्मों के
विषयों का सक्षेप मे परिचय देनेवाली संग्रदणियाँ भी काफी प्राचीन हैं । पचकल्प-
महामाध्य के उस्छेलानुसार सग्र्णि्यो की रचना आर्य कालक ने की है । पाक्षिक-
यूज में भी नियुक्ति एवं संग्रणी का उल्डेख है।
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