जैन जगत | Jain Jagat

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Jain Jagat by दरबारीलाल न्यायतीर्थ - Darabarilal Nyayatirth

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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क्ञा० ६ दिसम्बर १६३४] विरोधी मित्रों से [ १३ सव्र पदार्थोसि भी बड़ा रहता है या नहीं ? इसप्रकार | किन्तु उनका बिरोध ही होता है । किसको कव स- के निके लिये कराड़पतिका टष्टान्त बहूवही उप- | सम्पत्ति कहते है, इस विबेचनका कुड उपयोग नहीं । युक्त है । धनक्रा माप रुपयस होता है तो ज्ञानका | जिनको भी जहाँपर सम्पत्ति मानलिया जाय उनकी माप अविभाग प्रतिच्छेदों या अंशोंस होता है । जब | हृष्टि त लखपति करोइ्पत्तिके विषयमे यह उदा्टरण हम ज्ञानमें झविभाग प्रतिच्छेद्रोंकी कोई न कोई न लना चाहिये । यदि भम्बालेमें लखपति लाख रुपये संख्य मानते ह तव जो बात रुपयों की तुलनाके विषय | की बात्दू एकत्रित करे तो वह लखपति तो कहला- में कही गई है वहीं ज्ञानक अविभाग प्रतिच्छेदों की ) यगा किन्तु दस रुपयकी पूजीवाले एक तरकारी वे- तुलनामं भी कही जायगी . यदि धनकृ समान ज्ञान | चनेवालके बरावर उसके पास तरकारी न निकलेगी। मे तुलना न होची तो जैनशाख्नमे यह्‌ विवेचन क्यो | इसस मरे पत्तकी ही सिद्धि हाती है कि लखपतिके खाता कि अमुक ज्ञानसे अमुक क्षान अनन्तभाग | पास वे सव चीं हना आवश्यक नही है जिवनी बृद्धिरूप है, असख्यभाग बृद्धिरूप है, संख्यातभाग | उसकी 'अपेक्षा रारीबोंके पास हैं । हाँ, लाखरुपयेका वृद्धिरूप है श्रादि ? माल उसके पास हे ' दूसरा लखपति लाखरुपयका मरे हृष्टान्तोंका गढ़ इतना दृढ़ है कि आत्षे- दूसरा माल रख सकता है परन्तु उसके हाथमें वा पककों वहाँ से किसी तरह किनारा काटना पढ़ता है। ! न होगी । इस प्रकार सम्पत्तिशाश्चका यह विवेचन घनके विपयमें ्ावश्यक समता दीनिपर भी अनाव- | भी व्यर्थ है; अथवा उसका इतना ही रथ है कि श्यक विपमता ओं क। उल्लेख करके किनारा काटा श्बौर | वह मेरा प्त सिद्ध करे । जिसमें यह बहाना नहीं था उस साफ उड़ादना पड़ा । विवाह या सं दा--बस्बईके एक स्ेता- मैंने एक श्रौर उदाहरण दिया था कि एक काव्य, | म्दर मूर्तिपूजक जैनने जिनकी आयु ५७ वर्षसे न्याय, इतिहास आदि अनक शाखोका पंडित है किन्तु | अभिक है तथा पहिलेकी पत्नी व बालन भी मौजूद बह मराठी भाषा नहीं जानता : और एक साधारण | हैं, विवाहके नाम पर सोलह इज्ार रुपयेमें एक खत्री रिसी विपयकी पंडिता तो नहीं हे किन्तु मराठी | कन्याकों खरीदा है ! अबोध बालिका चार सौ तोले भाषा जानती है। इन दोनोंमे कोई उत्कृष्ट अवश्य ह | सोनका सेवर देखकर विमोहित ह गई श्नौर उसने किन्तु एक दूसरके विषयको नहीं जानत । । खुशी खुशी बलिके लियं झात्मसमपण कर दिया । शन दृषटान्तमं रुपयों वैसोंकी कल्पित विषमता | एम पुरस्क।र--मुलतानमें एक हिन्दु लड्- भी नहीं है, फिर कया वास है रि एक उक ज्ञानी | की एक मौलवी साहिबके पास पढ़ती थी । मौनी अपनेसे हीन ज्ञानीके झयको नहीं जानता ? इससे | साहिबने कुछ बदनीयत ज़ाहिर की । इस पर लड़ मेरे बक्तव्यकी पूरी पुष्टि होती है । | को गुस्सा श्राया और उसने तरकारी काटनेका चाकू चप (६२) “स बहुतसे पदार्थं है जो | चाकर मौलवी सादिनकी नाक काट ली । पचाम लाखके धनीके पास तो हो, किन्तु करोक्के | दहेजप्रथा का भयानक परिणाम-- धनीके पास न हो --यह बात सम्पत्तिशाखके प्रति- | अमरनाथ को श्रपने विवाहे कम देच मिला इस कूल है । कोई भी वस्तु अपने नामसे ही सम्पत्ति | लिये वह और उसकी माता दोनों बधूको सताते नहीं । जसुनाका रेता जमुना किनारे सम्पत्ति नहीं दै | र्ते ये । आखिर एक रोज हपिकेश ल जाकर दधू और 'अंबालेमें है । सम्पत्तिका लक्षण मूल्यवान दै । | को उन्होंने गंगामें दृकेल दिया । मुक्रमा चलनेपर समार्धान- सम्पत्तिशाखके इस प्रारस्मिक सूत्र अमरनाथ को सात वर्षकी तथा उसकी माताफ। तीन के उटेखसे भाक्ेपकके पकी कोरे सिद्धि तो दूर, ! बपंकी कड़ी फ़ेदकी सज़ा हुई ।




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