चिर - कथा के मोड़ | Chir Katha Ke Mod

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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५. जाएं, चांद फिर मुसकरा उठे, सानव यात्रा की मंज़िलें कुछ निकट सरक आएं | ~~ - जिन स्वजनों, सित्रों, परिचितों श्रोर कलापारखियों ने तुश्हारी कहानी को सुना है, न हंस सके हैं, न रो सके हैं । बस पथराई श्रवो से श्वय बधे सेरी आर देखते रहे हैं, यह सोच कर उसे हैं कि इस कथा को सुन कर मन को क्यों तड़पाया जाए ? फिर वे मस्त्रसुग्ध-से शेष कथा सुनने चलते षु है क्योकि तुम्हारे चेहरों में उन्हें श्रपने चेहरे दिखाई दिए हैं, तुम्हारी घाटियों की गुजें उनकी घाटियों की गुजें बन गईं हैं, तुम्हारे दिलों में ददकते रेगिस्तान उनके दिलों से जा मिले हैं । मुभे तुम्हारी कहानी कहने का सुश्रवसर मिला; परन्तु तुम्हें श्रादर्शों से सजा कर्‌; विशेष दशनो शौर द्टिकोणों से तुम्हारी नोक पलक संवार कर सेखक का पुनीत कर्तव्य न निबाह स्का। यदि पि भी मुझे दहते रेगिस्तानो म भय्क्ती चमा भिल्ली है तो सुखं अकिचन कै श्रहोभाग्य | इन घिया की गूजोँ अर दहकती भव्कती क्षमा मे ही मेरी खाली कोली को भर दिया है, थकन को हर किया है, भुम नया विश्वास ग्रदान किया दै, इससे श्वधिक मैने चाहा ही कव है ! होश्यारपुर | रामदेव २ ७---१ १--६१




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