परम शान्ति का मार्ग | Param Shanti Ka Marg

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Param Shanti Ka Marg by श्री जयदयालजी गोयन्दका - Shri Jaydayal Ji Goyandka

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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धर्मयुक्त उन्नति ही उन्नति है ९. परस्पर सवके साथ वहत उत्तम तथा सरल, विनम्र, स्पष्ट, न्याययुक्त ओर सत्य व्यवहार करना चाहिये । गछा-किराना, सूत-कपड़ा, गुड़-चीनी, लोहा-सिंमेंट आदि किसी भी वस्तुके भाव तेज या मदे हो जनिषर भी खीकार किये हए सौदेके मालको देने और लेनेमें न तो जरा भी आनाकानी करनी चाहिये; न वेईमानी करनी चाहिये और न अस्वीकार ही करना चाहिये, चाहे. कितनी ही हानिका सामना करना पड़े । किसी भी दलाल, व्यापारी या एजेंटका कोई भूलसे दोष हो जाय तो उसे क्षमा कर देना चाहिये तथा अपने सम्परकंभे आनेवाले सभी व्यक्तियोंको अधिक-से-अधिक लाभ हो और उनकी सब प्रकारसे उन्नति हो, ऐसा भाव रखना चाहिये । ऐसे व्यापारसे इस ठोक और परलोक--दोनोमें सुगमतासे उन्नति हो सकती है | सामाजिक उन्नति इसी प्रकार हरमे सामाजिक उन्नति भी करनी चाहिये | बच्चा पैदा होनेपर पार्टी देना, कोको बुखाकर चौपड-तारा खेखना, बीडी- सिगरेट पिलाना, विवाह-दादीमे दहेज लेना, दहेजका दिखलवा कना; आतिरावाजी करना, चिनोरी निकाठ्ना, बुरे गीत गाना; यियेटर- तमादे दिखाना, पार्टी देना, बहुत अधिक रोशनी करना, बडे पण्डार बनाना, दिखावेमे व्यर्थं खच करना एवं धरके किसी बद्ध आदमीके मर जानेपर विषिसद्गत ब्राह्मग-मोजन ओर बन्धु-बान्धवोके अतिरिक्त प्रीतिमोज करना, पार्टी देना--आदि जो कुरीति ओर फिजूलखर्ची हैं, इनको हटाना चाहिये | ये सब बाते सामाजिक उन्तिंके अन्तर्गत हैं ।




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