अपूर्व अवसर | Apurv Avasar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दे यथाथे सत्समागम द्वारा झुद्टात्माकी अतरग प्रतीति अत्यन्त पुरुपार्थ- से की तवसे स्वभावमें परिणमन हुआ । वह परिणसन दी इस आत्माकी गुद अवस्याका काल दै) वह 'स्वकाल' कहलाता है । आत्म-घान द्वारा स्वभावका भान रदता है किन्तु अभी पूर्ण युद्ध पर्याय प्रकट नदीं हु, उसे पणे करनेके लिए स्वरूपके भान सहित यह भावना है । इस 'अपूर्वे' में अनेक अर्थ गर्भित हैं, इसलिए इम (अपूर्व मगलीफसे भावनाका प्रारम्भ क्रिया जाता है । पहले अनुत्पन्न अपूर्व ( स्वभाव-काल ) कैसे आएगा ? साधक इस मनोरथको साधता है । मनोरथ दोनेमे मन तो निमित्त है किन्तु ज्ञान द्वारा उसको अस्वीकार कर साधक जीव स्वरूप चिंतनकी जाग़तिका उद्योत करता है। स्वरूपकी भावनाका ( मनोस्थका ) प्रवाह चलता है, उसके साथ स्वभाव परिएतिका प्रवादभी चलतां है । उस भावनाके साथ मन- का निमित्त है तया रागका अश्र है उससे विचारका क्रम होता है ओर उसमे लोकोत्तर पुख्यका वध सदन ही दो जाता है; किन्तु प्रारम्भसे ही उसकी अस्वीकारता है । उसे मेदां ओर विकल्पोंका आदर नदं है किन्तु अतीन्द्रिय भावमनोरथका स्वरूप चितवन है । तत््वस्वरूपकी भावना विचारते हए अपने मनका निमित्त भाता है । पूर्ण झुद्धात्म स्वरूप सिद्ध परमात्मा जैसा है ऐसा अपना स्वरूप लक्ष्य- में रखकर पूर्णताफें लक्ष्यसे श्रीमदू आत्मस्वरूपकी भावना करते है । एसी यथाथै निर्जन्य दा, स्वरूप स्थितिका अपूव अवसर कब होगा; ऐसी अपने स्वमावकी भावना है । धमे कव अतरग एवं वहिरगसे निर्मन्थ दोगा म्यान्‌




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