अष्ट प्राभृत | Ashtprabhrit
लेखक :
पं पन्नालाल जैन साहित्याचार्य - Pt. Pannalal Jain Sahityachary,
श्री कुन्द्कुंदाचार्य - Shri Kundkundachary
श्री कुन्द्कुंदाचार्य - Shri Kundkundachary
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
57 MB
कुल पष्ठ :
670
श्रेणी :
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पं पन्नालाल जैन साहित्याचार्य - Pt. Pannalal Jain Sahityachary
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श्री कुन्द्कुंदाचार्य - Shri Kundkundachary
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)(६)
दिगाजित है । उप या स्यारह यविसाधों में उसी बारह पवयर के को पालन होता है ।
स्थूलड्रिसा, स्थल मषा, स्थल वौये, तथा परदार से निवृत्त होना श्रौर परिग्रह तथा प्रारम्भ को
परिमाण करना-सीमा निश्चित करना ये से अडिसादि पांच श्रणुब्रत हैं । दिशाओं श्रोर विदिशाधों
का परिमाण करना श्रनर्थ दण्ड का त्याग करना और भोगोपमोग को परिसारत करना ये तीन गुरा-
व्रत हैं। सामाधिक, प्रोषघ, घतिधिपुजा अर ये चार दिक्षाश्रत हैं । तत्वा्थ सुब्रकार ने
दिग्यत, देशब्रत ग्रनथेदण्ड ब्रत इन तीन को गे व्रत सास प्रोपरधोषवास, उपभोग परिर-
भोग परिमाण श्रौए श्रतिथिसंविभाग इन चार को दिक्षाब्रत कटा है । समन्तभद्रस्वामी ने दिग्व्त,
श्रनथ दण्डब्रत श्रौर भोगोपभोग परिमागा इन्हें तीन गुग्गब्रत तथा सामायिक, डिक, प्रोषघोप
वास श्रौर वेयावृत्त्थ इन्हें चार दिक्षाब्रत कहा है । इन दोनों श्राचार्यों ने सल्तेखना का वणुन श्रलग से
किया है ।
पड्चईइा्द्रयों को वहा करना, धारण कर ना, पड्च समितियों क। पालन करना
श्रौर तीन गुप्तियों को धारगा करना यह सब अ्रनागाराचरग' म्रर्थात् मुनियों का चारित्र है । मनोज्ञ
ग्रौर श्रमनोन्न विषयों में राग द्वष न कर मध्यस्थभाव घारग्ग करना सो स्पर्णनादि पांच इन्द्रियों का
करना है । हिसादि पांच पापों का सवया त्याग करना सो पांच महाब्रत हैं । ये महान प्रयोजन
को साधते हैं, महा पुरुष इन्हें साधते हैं श्रथवा स्वयं में ये महान हैं इसलिये इन्हें महाब्रत कहते हैं ।
इन श्रहिसादि बृतों की रक्षा के लिये पच्चीस भावनाएं होती हैं । ये वहीं पच्चीस भावनाए' हैं जिनके
श्राधार पर तत्वाथ सुत्र कार ने सप्तमाध्याय में श्रह्लिसादि ब्रतों को पांच पांच भावनाओं का वर्णन
किया है। ईर्या, भाषा, एपणा, म्रादान श्रौर निक्षेप ये पांच समितियां हैं । ग्रन्थान्तरों में प्रादान निक्षप
को एक समिति मान कर प्रतिष्ठापन श्रथवा व्युत्सग नाम की श्रलग समिति स्वीकृत को गई है ।
इस तरह संयमचरण का वर्णन करने के वाद कुन्द कुन्द महाराज ने कहा है कि जो जीव
परम श्रद्धा से दर्शन, ज्ञान, पर चारित्र को जानता है वह थीघ्र हो निवाण को प्राप्त होता है ।
सुत्तपाहुड:-
सूत्र पाहुड में २५ गाथाए हैं । प्रारम्भ में सुत्र की परिभाषा दिखलाते हुए कहा गया है कि
ग्ररदन्त भगघान ने जिसका अ्रधरूप से निरूपण किय। है, गणधर देवों ने जिसका गुम्फन किया है।
तथा शासन का श्रथ खोजना ही जिसका प्रयोजन है उसे सुत्र कहते हैं, ऐसे सुत्र के द्वारा साधु परमार्थ
को साधते हैं । सुत्र की महिमा बतलाते हुए कहा है कि सुत्र को जानने वाला पुरूष शीघ्र ही भव का
नाश करता है । जिसप्रकार सूत्र श्र्थात् सूत से रहित सुई नाश को प्राप्त होती है उसी प्रकार सुत्र
अ्र्थात्--श्रागमज्ञान से रहित मनुष्य नादा को प्राप्त होता है । जो जिनेन्द्र प्रतिपादित सूत्र के भ्रथे को
जीवा जीवादि नाना प्रकार के पदार्थों को ह्ेय तथा ग्रहेय को जानता हैं बढ़ी सम्यर्दृषि है।
जिनेन्द्र भगवान ने जिस सूत्र का कथन किया है वह व्यवहार तथा रूप है, उसे जान कर ही
योगी वास्तविक सुख को प्राप्त होता है तथा को नष्ट करता है । सम्यक्त्व के बिना हरि हर
के तुल्य मनुष्य भी स्वग जाता है श्रौर वहां से श्राकर करोड़ों भव घारण करता है परन्तु मोक्ष को
प्राप्त नहीं हाता ।
इसी सूत्र पाहुड में कहा है कि जो मुनि सिंह के समान निर्भय रद कर उत्कृष्ट चारित्र
घारण करते हैं, श्रनेक प्रकार के ब्रत उपवास श्रादि करते हैं तथा झ्राचार्य श्रादि के पद का गुरुतर
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