शेष वाणी | Shesh Vani

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Shesh Vani by धन्यकुमार जैन - Dhanyakumar Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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সমান £ रोगशय्या : गद्य-काव्य १४ ओर न समकेगा कुछ ~ धविस्म॒त युगर्मे दुलेभ प्षणो्मि जीवित था कोई शायद, हमें नहीं मिली जिसकी कोई खोज उसीको निकाला था उसमें खोज । कलकत्ता १३ सतेग्बर्‌ “४० १९१ जगतमें थुगोंसे हो रही जमा सुनीत अक्षमा 1 अगोचरमें कहीं भी एक रेखाकी होते ही भुछ दीर्थ कालमें अकस्मात्‌ अपनेको कर देती वह निर्मूल । नींव जिसकी धिरस्थायी सम रखी थी मनम লী उसके हो उठता है भूकम्प परल्य-नेतेनभे । प्राणी कितने दी अये ये बाँधफे अपना दल जीवनकी रफ्रभूमिपर अपर्याप्त शक्तिका लेकर सम्ब- बह शक्ति ही है श्रम उसका, अऋमशः असद्य दो छुप्त फर देती मद्दामारकों । कोई नहीं जानता, इस विद्म कहाँ हो रही जमा दारुण अक्षमा । दृष्टिकी अतीत न्नुटियोंका फर भेदन सम्बन्धके दृट्‌ रा्धका कर्‌ रही वह छेदनं ; इन्नितके स्फुलिह्वोंका भ्रम पीछे लौसतेका पथ सदाको कर रहा दुर्गम्‌ ।




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