शिक्षा में विवेक भाग - १ | Shiksha Me Vivek Bhag - 1

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Shiksha Me Vivek Bhag - 1  by किशोरीलाल मशरूवाला - Kishorilal Mashroowala

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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शिक्षाका दर्शन १३ करना चाहे, तो आप बूचे-नीचे या आगे-पीछे तो हिल सकते हे, परन्तु प्रगति नही कर सकते। जिस प्रकार आत्मा-अनात्मा-विवेकर्मे केवर दोके वीचकीं विलक्षणता ही समन्लने जैसी चीज नही, बल्कि दोनोके वीचका गाद्‌ अन्वय भी ध्यानमें रखना आवश्यक है। लेकिन दोनोका खयारू रखनेवाले भी दोनोंके परस्पर ओत- भरोत सम्बन्यका खया रखना भूल जाते हैें। आध्यात्मिक जीवनका क्षेत्र अठऊग है और भौतिक जीवनका अलग है; सेकका विचार करते समय दूसरेको भूल जानेमें वे कोठी दोष नहीं देखते; आलटे, जेकर्मे दूसरेको मिला देनेवाके दोषपात्र माने जाते हें। गाघीजी पर छगाया जानेवाला यह आक्षेप तौ जग-जाहिर है कि जुन्होने सत्य, अहिसा आदि आध्यात्मिक जीवनके गुणोको भौतिक क्षेत्र्में दाखिल करके बड़ी अव्यवस्था पेदा कर दी है। अूसी प्रकार जेसे लोगोको भौतिक विद्याकी खोजोका अनुसरण करके बध्यात्म-न्ञानके क्षेत्रमें आनेवाले विषयोका संशोधन करनेमें भी अमुतनी ही अरुचि रहती है। विज्ञानकी परयोगदाखामे व्याख्यान देनेवाला चास्त्री मौर मदिरे भ्रवचन करनेवाला शास्त्री --दोनों अेंक ही व्यक्ति हो तो भी अुसका व्यवहार दो अलग-अलग व्यक्तियोकी तरह रहता है। यह भी शरीर और आत्माके वीचका अन्वय न समझनेंका परिणाम है ! जैसा कि आचार्य जैदसने कहा है: “ मनुष्यकी सर्वांगीण शिक्षा साधनी हो, तो सबसे पहले हमें भूतकालसे च्छे आ रहे जक हानिकारक अमको दूर करना होगा। वह भ्रम जिस मान्यते है कि मनुष्य शरीर और मन जिन दो अलूग-अलूग तया जैसे-तैसे जुडे हुओं अंगोंका वना हुआ है। जिन दोमें से वादमें मनरूपी अंशको ही दैवी मानकर आअसका शिक्षाके क्षेत्रमें समावेश किया जाता है। परन्तु शरीरको जिहलौकिक पाथिव वस्तु मानकर शरीर-विज्ञानियों या डॉक्टर-वैद्योके लिझे छोड़ दिया जाता है। जिस




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