विवादों के घेरे में | Vivado Ke Ghere Me

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Vivado Ke Ghere Me by उपेन्द्र नाथ अश्क - UpendraNath Ashak

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जीने का अपना अन्दाज ए १४ चेतन का सवड्जि जीवन वे लिखेंगे। ऐसे संकल्प प्रायः साहित्यिक जीवन में लेखक लेते ही रहते हैं और कालान्तर में उनको बदल भी देते हैं, लेकिन अश्क ने जो संकल्प आज से चालीस-पचास साल पूर्व लिया था, उसे पूरा करने में आज भी संलग्न हैं। 'गिरती दीवारें' 'शहर में घूमता आईना,' 'एक नन्हीं किन्दील,' 'बाँधो न नाव ठाँव' आदि उपन्यास उसी संकल्प की श्रृंखला में लिखे गये हैं और आजकल वे उसका पौँचवाँ और अन्तिम खण्ड लिखने में संलग्न हैं | यह निर्वाहं-शक्ति हर लेखक में नहीं होती । अश्क में यह अन्य लेखकों की अपेक्षा सबसे ज़्यादा है। के प्रयाग में अश्क से मेरी भेंट १६५२-५३ में साहित्यकार संसद में हुई थी । नीलाभ उन दिनों बच्चा था। अश्क संसद भवन छोड़ चुके थे। खुसरो बाग रोड के किराये के मकान में रह रहे थे। कहीं से कोई भी आर्थिक आधार नहीं था। स्वास्थ्य भी ख़राब था। फ़िल्मी दुनिया में दो साल गुज़ार कर आये थे। परिवार और रहने का जीवन स्तर ऐसा नहीं था कि जो सामान्य हो, स्तर सामान्य से ऊपर ही था, लेकिन इस सबका निर्वाह वे उस समय भी अपने लेखन से ही करते थे। उन दिनों अश्क लेखकों को दावतें भी ज्यादा देते थे | प्रायः गोष्ठियाँ भी उनके यहाँ होती रहती थीं और मेहमान भी आते रहते थे। आज अश्क ने साहित्यिक गोष्ठियाँ समाप्त कर दी है। घर में मेहमानों के हिसाब का भी अब पता नहीं चलता, लेकिन तब यह सब जग-जाहिर था। मुझे मालूम है कि कैसे-कैसे संघर्ष उस समय उनके साथ आ उपस्थित होते थे। हम दोनों के सामान्य मित्र थे वाचस्पति पाठक । प्राय: उनकी ज़बानी बहुत-सी बातें मुझे मालूम होती रहती थीं। अश्क ने उन संघर्षशील दिनों को कैसे झेला होगा, इसकी कल्पना मैं कर सकता हूँ, लेकिन उन दिनों भी अश्क के चेहरे पर शिकन नहीं होती थी | वे हमेशा हैँसते-मुस्कराते नजर आते थे और हम लोगों के हँसी-मजाक में योग देते थे। उन दिनों भारती और अश्क में गहरी दोस्ती भी थी और साहित्यिक स्तर पर सैद्धान्तिक विरोध भी था, लेकिन अश्क के व्यक्तिगत व्यवहार में कभी तल्खी नहीं आती थी | वे सारी बातों को हमेशा हल्के-फुल्के ढंग से गुजर जाने देते थे । आज अपनी उसी संघर्षशील शक्ति के बल पर अश्क ने “नीलाभ प्रकाशन! जैसा संस्थान तो खड़ा ही कर रखा है, साथ ही अपने श्रम और संघर्ष से एक बैंगला भी इलाहाबाद की अच्छी आबादी में खरीद लिया है। यह सब अश्क ने अपने कलम के सहारे ही किया है। लेखन से भी इतना कुछ किया जा सकता है, इसकी मिसाल अश्क ने हम लोगों के सामने रखी है। एक परदेसी के रूप में जो व्यक्ति इलाहाबाद में आश्रय लेने आया था, उसने अपनी कठिन साधना




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