श्री मद्दयानन्द प्रकाश | Srimadyanand Prakash

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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#-1 भोगप वद्धो ष्टी महाता दिनोदिनि धदव दी च्या रषौ, সি फिखारियों का कातरे करन्तून पिरामनविश्राम-पिदहीन हने लग गयां पै । श्री स्वामीजी यद् भी ज्ञानते थे कि भारत-मृमति रान-गर्मा ६, सुजा, सुफला है। ऊसर নর্ধী, কিছু হা আর মহযযাজিলী & । इस पर घादार- योगय मामा धान्य उदय दोते हैं! इस पर सुस्वादु पलो श एटि भी नही ६। भोगन, चाम्दुदूम पौर प्यवदार के योग्य सव यस्तु यहां ष्पद होती ६ । चो फिर माना षसुन्परा द्पनौ सन्तान का लाचन-पालन कयो न्धो कर सकती १ इसके छाइले ज़दके-दाने भूप के मारे इसकी भोद में थैढे विज्ञप-विज्क कर आह-चाठ নু ধঝী रो হই £? ऊपर के मश्लों छा उतर मद्॒पि ने अच्छी ठरह समर किया था । उतकी द्ष्य दृष्टि से नित्य के भ्रकाल के कारणों का दुरे रहना सवया ग्रमम्भ्व या | वे तानते थे कि भूमि की उपज में मेद नहीं पढ़ा, डिन्‍्नु कु 5 एद्धि दो गई हो सो कोई चाश्रयं नहीं । फिर भी यहां भूस है भौर दुर्भि ६, मो मका कारण शिदपकला জা भारी अभाव है। श्रावश्यकोय ब्यवद्दर को यसतुयें यहाँ निर्मित गर्दी होती । विदेशी पस्तुच्चों को भरमार से यहां के क्ा्सों परिश्रमों निरुममे हो रदे दे বদি पास झाभीरिका का कोई उपाय नहीं रद्द । पहले साधारण ५रिहिवति के मनुष्प से लेकर महाराज और राजे भरों सक इसी देश के बने वस्त्र से वेश-विन्यास करते थे, यहाँ হ্ন-অহিল আয় सणि-मुक्ताफवित झाभूषणों से दिमूप्रित होते । झसके आाकाश-मेदी भवत इसी देश के कृतकम्सों दिश्वकर्म्माशरों के द्वारा यनाये जनि । उनको सुमनित रने के लिए भारत को विद्रशाल्ाशों के मिश्रह्रों हो से चदूमुत दिग्र प्राप्त दी जाते | परस्तु आज सब कुछ गिपरीत हो गया दे । महारा, धूमे वक्ता को भाँ ति, अपने भाषण को ब्याख्यान-भवन की হুল अलिद्कियों से पार कर देने में द्वो अपने देश-दित की सम्पूर्ण सफलता महीं मानते মি ।ই ঘলে कर्म-पौगी थे, दस कारण कियास्मक कर्म करना धाइते थे। उनके जीवन के भ्रन्तिम दर्पौ तं, उनके घर्म-प्रचार और समाज-मुधर च्रादि उदास उद्देश्यों में, भारतबर्ध में रिदपकला का विस्तारित करना भी सम्मिलित हो गया था । वे इसके लिए पूर्ण अ्रयर्त कर रहे थे। उन्‍्द्ति श्रपते पश्चिमी शिष्य 'बीस* महाशय म क्षिता था ङि झाप भारतबासियों को शिव्पन्कला सिखाने का प्रबंध कीजिए । मद्राराज के पैग् के उत्तर में जर्मन देश निवासी श्रोमान्‌ जी.पए. बीस ने'




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