सन्निवेश | Sannivesh

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Sannivesh by ज्ञान भारिल्ल - Gyan Bharill

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हुम एक हैं ! हम एक हैं !! हम एक है |! मोर आइये इनसो भी सुर्ने--जों अपनो अपनी बाँहें फेसाये शोदि- षटि दहिम समेष्ये जा रहे हैष! चद सिसी शौ चिन्ता नही । एवा 'दवरासनड्रार तो. मालनघासनद्गारं है। अदभुत है. इसकी उद्धारता जो मे কহিল क्यधौत ने परम करीस की रुझ्णो' पर वार देते हैं। एफ जाँस मूँदे गुनमुना रहए है--दिध्यद जन तो संघे रहिये जे पीर पराई जाणे रे! सो दूसरा सरसन्वरस कर गारहा टै--दोवन प्रतियात साथ সন द्वितग्रारी, যী ইহ ऐती देर कहाँ बरी मुरारी ?” एक असग्द शिश्वाय के साथ समझा रहा है ऐैसों को उद्दार जग माँही ? बियु सेवा जो दर दीग पर, राम मरिय छोऊ नाहों' तो द्वारा प्रेमाम्युपूरित होकर रोमः रहा है--नन्‍्दरतस्द परइम्द के तस्वर, थोरे थीरे मुरती दजाठ ।' एक ओर से प्रीयुषिक्त बाणी बिसर रही है--'मज मन घरण कमल अविनासी, जेताइ दोसे धरणि गंगत विष तैताई सम उठ जासी! तो दूसरी घोर मे वीणा मद्गत स्रर सरस रहा है 'आमार अनाहत, आमार अनायत, तोमार बीणा सारे बाजिदे तारा । अपने पृष्यगीस शीवन से जगगी का कलूप पयारते ये सभी भक्त जय, गुणी जन, युग युग से दृष्ट-अद्ध्ट के समक्ष अपनी पराउन पुझार समपित करते रहे हैं। भाषा भिन्‍त रूप पर भाय खबझे एकर) एक ज्योतिश्युझ्ज से सभी के गात दीपित हैं । सभी के अपरों पर एक ही गीत है -- एक ही स्वर 1 यह गीव-यद्वी स्वर मूक परावाणों के मृष्मय वलेयर पर मुसहित হী ঠা है। जनता नौर ओर एकान प्षिला-सण्डो में रति और रम्मा के स्वकृप- सा सजा है। कही रंथरेस के स्वप्नो मे साकार हो उठा है तो कहीं कह्पता कैः पारम ध्पर्श से मूर्तिमाल । स्वायि-यपस्यां जौर साधन का सागर बव्रिरहु और मिलन की अमिव्र्यक्ति बतकृर सहूरा उठा है। ঘাঁধী केः स्तूष पर, फोणकं के सूर्य मन्दिर भें, काण्यी के धिवातव में और देखवाड़ा के देवालयों में सही गीद जह से चेतत নক जाग उठा है, तो ताज के संगसौध ऐश्वर्य और सीऊरी के घुलन्द बेभव में विस्मय बनकर छा गया है । स्ववत्रता महायग की दव अनन्तगामी लपटों की देखिये, रक्तपात, चीत्कार, पुकार, द्वाह्माकार में गूँजता प्रलयक्रारी नादहरहर मद्ादेव', 'अल्ताह हो अकबर 1 समवेत स्वृद मे फिरगी को ललग़ार्ते ये बलिप्ठ भुजदण्ड । हवामरियों की विधाष्ट, धोड़ों को हिनहिनाहटओऔर तोपों की गड़गडाहट में छपछ्धपाती तनवारें। राजबंशों की मूडुदी तनी, सिदहासन हिल उठे ! परदे की इज्जत परदेंशी के द्वायो विकती देख-जवाब उठ पढड़े। सैतिफ छावनी मे भड़की आग कालसपिशी की भाँति दौड़ पड़ी गुलामी के घंटाटोव अंधकार: मे




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