कुमारी प्रेमाबहन कंटकके नाम | Kumari Premabahan Kantkek Nam

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मेरे घरका वातावरण घामिक वृत्तियोका पोपक था। धामिक सस्कार, देवपूजा, विधि-विवान, त्योहार, बुत्सव सभी कुछ होते रहते थे । मेरे पिताजी बड़े श्रद्धालु और अध्यात्म तथा धर्मके अभ्यासी थे। सरकारी नौकरीमे ओर साधारण मघ्यम वर्गके होनेके कारण भुनकी प्रवृत्तियो पर मर्यादा लगी हुओ थी, लेकिन महात्मा गाधीजीके प्रति सुनका वडा आक- पेण वा । महात्मा गाधी (यग यिडिया' के सम्पादक हु तवसे पिताजी জুল पाठक बने। वाचनालयसे हर हफ्ते 'यग अिडिया ' का अक नियमित रूपसे वे लाते थे, स्वय पढते थे और मुझे भी पढनेके लिओे देते थे। तब में अग्रेजीकी चौथी कक्षामें पढती होअगी। मुझे अग्रेजीका जितना ज्ञान कहासे होता ? फिर भी में असे भक्तिपूर्वक और रस लेकर पढती थी ओर वादमे अच्छी तरह समझने भी ख्गी यी। पिताजी या में 'यग सिडिया' का अक भी अक पढना चूके नहीं। गर्मीकी छुट्टियोमे में कभी महीने डेंढ महीनेके लिओ बाहर जाती, तो पिताजी अआतने सप्ताहके सारे अक सभाल कर रख लेते थे और में वापस आती तब मुझे पढनेके लिख देते थे। अस समय राष्ट्रीय साहित्य या महात्माजी सवधी साहित्य मराठीमे बहुत नहीं था। लेकिन मेरे सौभाग्यसे अग्रेजी शालामे दो अच्छे शिक्षक आये, जिनसे समय समय पर दोनो प्रकारके साहित्यके बारेमे मुझे जानकारी मिलने लगी। में अग्रेजी चौथीमे थी तव श्री क० बे० गजेन्द्रगडकर नामके ओअक शिक्षकने अंक वर्ष तक पढाया। वे कॉलेजमे तत्त्वज्ञानके विद्यार्थी, महा- राष्ट्रके प्रसिद्ध तत्त्वज्ञानी प्रो० रानडेके विद्यार्थी, स्वामी विवेकानन्दके भवत और स्वदेशकी मुक्तिके लिओे हकूगन रखनेवाले व्यक्ति थे। अुनके कारण मुझे भारतीय और यूरोपीय तत्त्वज्ञानियोका परिचय हुआ । कोमी भक साल वाद वे जाला छोड कर चले गये। असके वाद भी भुनके साथ वर्पो तक मेरा सवबध वना रहा । आगे चल कर प्रो० गजेन्द्रगडकर नासिकके हसराज प्रागजी ठाकरसी कॉलेजमे पहले प्राध्यापक बने और वादे आचार्य हुओ।




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