जैन-शिलालेखसंग्रह -भाग 3 | Jain Shila Lakha Sangrah Bhag - 3

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Jain Shila Lakha Sangrah Bhag - 3  by विजयमूर्ति शास्त्राचार्य - Vijaymurti Shastracharya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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डः ज्ञात होते हैं जो कि भाषाशास्त्र की दृष्टि से बड़े महत्व के हैं। अधिकांश नाम अपभ्रश और तत्कालीन लोक माघा के रूप को प्रकट करते है | प्रस्तुत लेख संग्रह से ज्ञात सांस्कृतिक इतिहास का एक छोटा चित्र यहाँ दिया जाता है | लोग अ्रपने कल्याण के लिए, माता, पिता, भाई, बहिन आदि के कल्याण के लिए, गुर के स्मृत्यथं, राजा, महामरडलेश्वर श्रादि के सम्मानाथ मंदिर या मूर्ति का निर्माण करते थे और उनकी मरम्मत, पूजा, ऋषियों के आहार, पुजारी की आजीविका, नये कार्यों के लिये तथा शास्त्र लिखने वालों के भोजव के लिए दान देते थे । दातव्य बस्पुओं में ग्राम, भूमि, खेत, तालाब, कुआ, दुकान, भवन, कोल्हू, हाथ के तेल की चक्‍की, चावल, सुपारी का बगीना, साधारण वगीचे, चुगी से प्राम आमदनी, तथा निष्क,पण, गद्याण,होन्तु ( ये सत्र एक प्रकार के मिक्‍के हैं )घी एवं मुक्त श्रम आदि हैं। एक लेख ( १६८ ) में ब्राह्मण को कुमारिकाओं की भेंट का उल्लेख है जो देवदासी प्रथा की याद दिलाता है | ग्राम या मूमि के दान में प्रायः यह ध्यान रखा जाता था कि बे दान सर करों से मुक्त कराकर दिये जाँय ( २२६,४०४ आदि )। उत्सवों पर ही दान देने की प्रथा थी | बहुत से लेखों से ज्ञात होता है कि दानादि द्रब्य, चंद्र ग्रहण, सूर्य ग्रहण, उत्तरायणु-संक्रांति या पूर्रिमा आदि के दिन दान दिये जाते थे ( १०२ १२७,३०१,६४६ आदि ) | मूर्तियों के निर्माण में हम देखते हैं कि लोग प्रायः तीथकरों की मूर्तियाँ बनबाते थे--उनमें विशेषतः आदिनाथ, शान्तिनाथ, चंद्रप्रभ, कु थुनाथ, पार््वनाथ एवं वर्घमान की मूर्तियाँ होती थीं। तीथंकरों के अतिरिक्त हम दक्षिण भारत में वाहुबर्ली की मूर्ति भी देखते हैं | मकत या शिध्यगण् अपने आनार्यों की मूर्तियाँ या पादुका ( चसण ) भी बनवाते थे। यक्त-यक्षिणियों की पूजा भा प्रचलित थी । हुम्मच पद्मावती का पूजा का मुख केन्र था| लेखों में अम्बिका देवी ( ३४६ ) और ज्वालामालिनी ( ७५८ ) की मूर्तियों का भी उल्लेख मिलता है । प्रतिमाएँ प्रायः पाषाण और धातु को बनती थीं, पर एक लेख ( १६७ ) में पंच धातु की प्रतिमा का उल्लेख है | मंदिर प्राय; पाषाण या इट के बनते थे, पर कुछ लेखों ( २७७,२०४ ) में लकड़ी




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