पिच्छि - कमण्डलु | Pichchhi Kamandalu

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Pichchhi Kamandalu by विद्यानन्द मुनि -Vidyanand Muni

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about विद्यानन्द मुनि -Vidyanand Muni

Add Infomation AboutVidyanand Muni

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
२ तद्गुणलब्धि का यह प्रयत्न श्रसामान्य कार्य है। सिद्धालय की ऊंचाइयों को हेलया नही छत्रा जा सकता । मन, कचन श्रौर्‌ काय के बहुमुखी व्यापार को ध्येय की एक बिन्दु पर ले आना उतना सरल नही जितना जह ध्याच, ध्याता, ध्येय को लय' पदावली को गा देना । गुणलब्धि के लिए आचरण करना होता है, विचारों में अ्रनेकान्त सप्तभंगी का और चारित्र मे अहिसा का प्रदमनीय-आरात्म- वत्ति से अनुध्यान, चिन्तन, मननपूर्वक सहजगति से चारित्रप्रवर्तन करना होता है श्लौर तब कही साधना के पथ पर सिद्धि के दूरगामी चरण दिखाई देते है । जैसे वास के आ्राश्नय से तट ऊचा चढ़ते मे सफल हो जाता है उसी प्रकार भक्ति के मशिसोपान (सीढ़ियों) के सहारे मनुप्यभव उच्नतावस्था प्राप्त करने में कृतकाये हो जाता है क्योकि स्तुति करते २ उसे जो तन्मयता प्राप्त होती रहती हे, उससे उसे देहिक विषय-विकारों पर विजय तथा वितृष्णा की श्रानुपगिक उपलब्धि होती है जिससे शुभोपयोग में वृद्धि आती है । वह इस तन्‍्मयता में गाने लगता है कि है जिनेन्द्र!! हे तेज पुज के अ्रधिपति ! मै तुम्हारी श्रद्धा में ड्वा रहूँ, तेरा श्रचनमात्र याद रहे गेष सभी बाते मैं भूल जाऊ, मेरे हाथ भ्रजलिबद्ध होकर तुम्हारे समक्ष मेरी अकिचन भक्ति का नैवेद्य लिग्‌ रह्‌, कानो मे तुम्हारी पवित्रकथा मुनायी देती रहै ग्रौर श्रव त्राटकसिद्ध हौकर प्रनिमेषवृत्तिमे तुम्हारे ही दर्णन का लाभ लेती हुई इन्द्र के सहस्नललोचननिरीक्षण को भी मन्दकरदे। हे देव, मुझे कोई व्यसन न हो और यदि व्यसन शब्द का श्रथे अतिप्रसग-भ्रतिसेवन' है तो मुभे झ्रापकी स्तुति करने का व्यसत रहे एवं यह मस्तक तुम्हारी गुरभार श्रद्धा से निरन्तर नतिपरायगा रहे । पूजा के नारिकेल-सा तुम्हारे चरगामृल में धरा रहे। मैं तुम्हारी ही कृपाओं के प्रसाद से प्राप्त इस श्रमृतजीवन को जीकर तेजस्वी सुजन और पृण्यवान्‌ रहूँ। इस प्रकार के उद्गार जब छन्दोमयी वागी पर स्वत प्रस्फुटित होने लगे तब स्थाणुसमान शरीरवृक्ष पर देवीवरदान का अ्मृत-वसन्त कुसुमित हुआ जानना चाहिए । इस भक्तिकुसुम से विहँसते वसनन्‍्त को पने मे मन के जाइय (शिशिर्भाव) की दूर करना मात्र पर्याप्त है फिर तो 'शक्तिस्तस्य हि तादुशी' उस परमदयाक्षमामृति परमात्मा की करुणा के खोल नवीन प्राकाणगया १ सुश्रद्धा मम ते मते स्मृतिरपि त्वव्यचन चापि ते हस्तावजलये कथाध्रुतिरत कर्णाोऽक्षि सम्परक्षते । सूस्तुत्या व्यसन शिरोनतिपर्‌ मेवेदृश्षी येन मे नेजस्वी रुःजनोऽहमेव मुङृती तेनव तेज पते {11 ~ स्तुतिविया, आ्आ° समन्तभद्र




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now