काव्य दर्पण | Kavyadarpan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
40 MB
कुल पष्ठ :
512
श्रेणी :
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No Information available about पं रामदहिन मिश्र - Pt. Ramdahin Mishra
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)१०
नो रसो से नये साहित्य की परख होती है और होती आ रही है। रस और
भाव मनोवृत्तिमूलक है। मनोदत्तियो या मनोवेगो को कोई सीमा निर्दधारित नही हो
सकती । फिर भी, उनके निरीक्षण ओर परीक्षण का ही परिणाम रसभाव का संख्या-
तिन्पण॒ है । ये माव स्थायी संचारी मे बेटे हुए है। रसावस्था को प्राप्त करनेवाले
भाव नौ दही क्यो, और भी हो सकते है, पर मुख्यता इनकी टी मानी गयौ है।
सचारियो की भी अनन्तता है, पर तैतीस संचारी प्रधान माने गये है। इनसे अधिक
सचारियो की भी कल्पना की गयी है--दया, श्रद्धा, सन््तोप, स्वाधीनता, विद्रोह, त्याग,
श्रभिमान, सेवा, सहिष्णुता, लोभ, निन्दा, ममता, कोमलता, इष्टता, जिघासा,
सतोप, प्रवंचना, दभ, तृणा, कोठुक, प्रीति, है प, ममता आदि | आज एक नया
भाव भी उत्पन्न हुआ है जिते स्पष्ट रूप से नाम दिया गया है--हिन्दू-मुस्लिम
फीलिगः । तैतौत तो इनकी न्यून सख्या है । श्न्य भावो कौ कल्यना श्राचार्यो के मन
में थी और वे समभते थे कि इनमे टी श्नन्यो का शन्तर्माव हौ जा सवता है |१
मनोभावो को मेड बोधकर बहाने की तो कोई बात ही नही ओर न कोई ऐसा
करने का आग्रह ही कर सकता है। रामायण ओर महाभारत मे तथा प्राचीन काव्यो
ओर नाटकों में भावों की जो विविध व्यजना है, वह आधुनिक साहित्य मे दुलेभ है ।
तथापि, जीवन की जटिलिताओं ओर अभिव्यक्ति की कुशल कज्ञाओ को देखते हुए,
यह कहा जा सकता है कि स्थायी ओर संचारी के सीमित क्षेत्र से बाहर भी इनका
संश्लपणु-विश्तलेषण होना चाहिये। साहित्य भावो के उत्थान-पतन का ही तो खेल हैं;
प्रतिमा-प्रसूत भावों का ही तो वित्ाप्त है। इस दृष्टि से भी साहित्य को सदा समझने
की चेश होती रही है और उप्तकी सहृदयाह्ादकता कूती गयी है। हमें यह कहने मे
हिचक नही कि नाना भंगियो से काव्य-साहित्य का विश्लेपण किया गया है और
उसमे र-सिद्वान्तं की महत्ता मानी गयी है । कान्य के पठने-प्रखने, सोचने-समभने
ओर सश्लेषणु-विश्लेषण के अनेक माग हो सकते है, अनेक दृष्टि-संगियाँ काम कर
सतकतो है; अनेक मिद्धान्त बन सकते है ओर बने है। यदि ऐसी बात न होती तो
शेक्सपीयर पर सैकडो पुस्तके नदौ लिखी जाती । समालोचना-साहित्य कौ इतनी
भरमार न होती | प्रस्नादती ओर गुप्तजी पर नयी पुस्तकों का निकलना भी यही
पिदर करता है। यदि सिद्धान्तो की विभिन्नता नही होती तो आज काव्यलक्षणो
की विभिन्नता अपनी सीमा को पार न कर जातो--जितने मुह उतने काव्यलक्षण
न होते | हम तो कहेंगे कि रख-पिद्धान्त सा चकव्यूह है, जिसमे बाहर होना बडा
कठिन है। रसात्मकता या सगात्मकता ही एक ऐसी वस्तु है, जो काव्य-साहित्य को
इस नाम का अधिकारी बनाती है |
१, अन्येपि यदि मावा. स्यथुः चित्तशृत्तिवशेषत
अन्तर्भावस््तु सबेषां द्रष्टव्यो व्यभिचारिषु |--भावप्रकाश
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