विनोबा के विचार | Vinobaa Ke Vichaar

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महादेव देसाई - Mahadev Desai

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वियोगी हरि - Viyogi Hari

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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আপদ द विनोबा के विचार दया आ गई हो, या शंकरजीने उनपर अपनी शक्ति न आजसाई हो । जो हो, इतना सच है कि आज उनकी जाति बहुत फेली हुईं पाईं जाती है। गुलामीके जमानेमें कतृ त्व बाकी न रह जानेपर वक्‍तव्यको मौका मिलता है । कामकी बात खत्स हुईं कि बातका ही काम रहता है ! और बोलना ही है तो नित्य नये विषय कहांसे खोजे जाय॑ ? इसलिए 'एक सनातन विषय धुन लिया गया---““निन्दा-स्तुति जनकी; वार्ता चधू-धनकी ।?” पर निंदा-स्तुतिमें भी तो कुछ बाट-बखरा होना चाहिए । निंदा अर्थात पर-निंदा ओर स्तुति भ्र्थाव्‌ श्रास्म-स्तुति । बह्याजीने टीका- कारको भला-बुरा देखत्तेको तेनात करिया था । उसने ्रपना अच्छा देखा, अह्याजीका बुरा देखा । मनुष्यके मनकी रचना ही कुछ ऐसी विचित्र कि दूसरे के दोष उसको जेसे उभरे हुए साफ दिखाई देते हैं वेसे गण नहीं दिखाई देते । संस्कृतमें 'विश्व-गुणादुर्श-चंपू” नामका एक काज्य है। वेंकटाचारी नांमके एक दाज्षिणात्य पंडितने लिखा है। उसमें यहद्द कल्पना है कि कृशानु और विभावसु नामके दो गंधव विमानमें बेठकर फिर रहे हैं, ओर जो कुछ उनकी नजरोंके सामने आता है उसकी चर्चा किया करते हैं । कृशानु दोष-द्रष्टा है; विभावसु गुण-आहक ই | दोनों अपनी-अपनी दृष्टिसे वर्णन करते हैं। गुणादर्श अर्थात्‌ शुणोका दर्पण” इस काभ्यका नाम रखकर कविने अपना निर्णायक मत विभावसुके पच्- में दिया है। फिर भी कुल मिलाकर वणंनका दङ्ग कद्ध ऐसा है कि अंत- में पाठकके मनपर कृशानुके सतकी छाप पढ़ती है। गुण लेनेके इरादेसे लिखी हुई चीजकी तो यह दशा है। फिर दोष देखनेकी बृत्ति होती तो क्या हालत होता! चंद्रकी भांति प्रत्येक वस्तुके शकलपत्त और कृष्णपक्त होते ह । इसलिए दोष द्वू ढ़नेवाले मनके यथेच्छ विचरनेमें कोई बाधा पडनेवाल्ली नहीं है । “सूयं दिने दिवाली करता दै फिर भी रात को तो अंधेरा दी देता हे!इतना ही कद्द देनेसे उस सारी दिवालीकी होली हो जायगी। उप्में भी अवगुण ही लेनेका नियम बना लिया जाय तो दों दिनोंमें




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