आचार प्रबन्ध | Aachaar Prabandh

Aachaar Prabandh by पं. रूपनारायण पाण्डेय - Pt. Roopnarayan Pandey

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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९ आचारप्रबन्ध । हो होसक्तो है। सनुष्य को जो कुछ करणोय है उतम क्याहोनास- কলম है और फया असम्भव है ऐसा सोच विचार कर ही वह फरभा होता है। यही होता है, और यहो फरमा होगा, इस प्रकार को हढ रुक्ति का प्रयोग बहुत ही थोड़े थिषयों सें हो सक्ता है। फिल्तु विचार की प्रणाली ऐसी होने पर भी शिक्षाकाय्ये सें सम्भधितठयता फी गयासा द्वारा सब्द्प्यता का आाभाश देने से काम नहों चलता । यदि शिक्षक सम्भवितठ्यता को गणना करने लगता है तो द्वात्र के हुदूय में शिक्षा- हढता घट जाती है एव सिट्वान्त या फलको स्थिरता नहां होती । सी कारणा झादि में सम्भवितव्यता के सृश्षमया पंसानुपंख विचार द्वारा जो अधिकतर सम्भधितव्य कहकर अवधारित होता है वही प्रुव- सत्य कहकर सिखाया या सीखा जाता है। किसी व्यक्ति कौ रूची छत पर से भोचे कूदने के लिये उद्यत देखकर “ तुम सर जाओगे ' यही कहकर रोका जाता है। छत पर से फटने में सब ससय सम हो नहीं भर जाते तथापि देहकी गठन, गिरने का ढंग, नीचे के स्थात्त को अदस्या आदि को घियार कर “ तुम्हारे मरने की सम्भावना अधिक है ”” ऐसा नहीं कहा जाता । शास्त्र भी फिक्षादाता हैं । बह भगवान के न्याय का शझादेश करते हैं । वे पणंसात्र प्रत्यभिज्ञान के फलों को कास्येकररूप से सुय्यक्त करने फे लिय सुस्पष्ट विधि अथतः (निचेध' वार्यो का प्रयोग करते है, विधि नि्ेध बाक्यों के प्रयोग के समय प्राक्तन और पुरुषकार भेद से विभिन्न व्यक्तियों के लिये किसी विशेष विषय सें सम्भवितठ्यता সাঙ্গ प्रदृर्शित कर निश्चिन्त नहीं हो सफ्ते । शास्त्रविधि के इस शिक्षाद्‌ातृक प्रभुभाव के स्मरण रखने का विशेष प्रयोजन है । केवल इसी भाव का स्मरण न रहने से आजकल के अड्भरेजो पढ़े लिखे लोग हो किसी २ स्थल में शास्त्रोक्ति को शसफलसा समझ कर उसके प्रति श्रद्धा होन होते जाते हैं ऐसा नहीं है, किन्तु अत्यन्त पूर्व काल से, अत्यन्त प्रधान २ लोग भो इसो प्रकार श्रद्ठाहीनता के दोष को पाप्त हुए हैं। युद्ुदेवने बहुकालपय्यन्त शासत्रोयविधचि के अनु- यायी तप किया है, उससे वाजहिशतफल मपाकर शास्त्र विद्वेषी हुए हैं। घुला गपा है कि रामसोहनराय ने भो छनेकानेक पुरश्चरण एवं जप




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