विनोबा के विचार भाग - १ | Vinoba Ke Vichar (vol -i)

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महादेव देसाई - Mahadev Desai

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मोहनदास करमचंद गांधी - Mohandas Karamchand Gandhi ( Mahatma Gandhi )

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कृष्ण-भक्तिका रोग १५ तो नित्य नये विपय कसि खोजे जायं 2 इसलिए एक सनातन विपय चनं लिया गया---निंद-स्तुति जनकी, वार्ता ववू-बनकी।” पर निदा-स्तुति- में भी तो कुछ वाट-बखरा होना चाहिए। निदा अर्थात्‌ पर-निदा ओर स्तुति भर्थात्‌ आत्म-स्तुति। ब्रह्माजोने टीकाकारकों भल्य-वुरा देखनेंकों तैनात किया था। उसने अपना अच्छा देखा, ब्रह्माजीका बुरा देखा। “मनृष्यके मनकी स्वना ही कुछ एसी विचित्र है कि दूसरेंके दोष उसको जैसे उभरे हुए साफ दिखाई देते हैं, बसे गूण नहीं दिखाई देते ।' संस्कृतमें विश्व- गुणादर्श-चंपू” तामका एक काव्य है। वेंकटाचारी नामके एक दाल्षिणात्य पंडितने लिखा है। उसमें यह कल्पना हैँ कि कृशानु और विभावसु तामके दो गंधर्व विमानमें वैठकर फिर रहे हं, गौर जो कुछ उनकी नजरोकि सामने जाता हुं उसकी चर्चा किया करते हू! कृशानु दोपष्टा ह, विभावसु गुण-ग्राहक हैं । दोनों वपनी-अपनी दृष्टस वर्णन करते हं। गुणाद अर्थात्‌ गुणोंका दर्पण” इस काव्यका ताम रखकर कविने अपना निर्णायक मत विभावसुके पक्षमें दिया है। फिर भी कुल मिलाकर वर्णनका ढंग कुछ ऐसा हैं कि अंतर्में पाठकके मत पर छृशानुके मतकी छाप पड़ती हं! गुण लेनेंके इरादेसे लिखी हुई चीजकी तो यह दशा है। फिर दीप देखनेकी वृत्ति होती तो क्या हाल होता ? चंद्रकी भांति प्रत्येक वस्तुके शुक्लपक्ष और क्ृष्णपक्ष होते हं । इस- लिए दोप ढूंड़नेवाले मनके यथेच्छ विचरलनेमें कोई बाधा पड़नेवाली नहीं ই। सूर्य दिनमें दिवाली करता है, फिर भी रातको तो अंबेरा ही देता है; इतना ही कह देनेंसे उस सारी दिवालीकी होली हो जायगी। उसमें भी अवगुण ही लेनेका नियम बना लिया जाय तो दो दिनोंमें एक रात न दिखकर एक दिनके अगल-बगल दो रातें दिखाई देंगी। फिर अग्निकी ज्योत्िकी ओर ध्यान ने .जाकर धुएंसे अग्निका अनुमात करनेवाले न्याय-धास्वका निर्माण होगा । सगवानने ये सव मजेकी बातें गीता- में बतलाई हें। अग्निका धुआं, सूर्यकी रात अथवा चंद्रका क्ृष्णपक्ष देखनेवाले क्ृष्ण-भकतोंका' उन्होंने एक स्वतंत्र वर्ग रखा हैँ। दिनमें




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