धर्म सिद्धान्त - रत्नमाला | Dharm Siddhant - Ratnamala

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(9) शोर जल्दी ही विधवा होकर जन्म भर रंठापे के दुःख भोगे पड़े ओर फिर आगे को भी न मालूम क्रिस २ पर्याय मे और फिस किस श्रवस्था मं र्ते फिरना पड़ं। यह मनुय जन्म ओर मनुष्यो में मी पुरुष पर्याय तो यहुत ही ज़्यादा परय के उदय से मिलती है श्रीर मनाया की इस परुपपर्याय के झारा ही जीव के कल्याण का तव उयम घन सक्ता है। दस प्प पयायरूपी चिन्तामणि स्त को स्वच्छ दोड़कर इस प्रकार कलंक्रित करना श्रौर खी पर्याय से भी अधिक कमजोर ओर नियत सिद्ध करके चिपय कपायो भे फंसाये रखना तो अन्यत ही मूर्सताफ़ी बात है। आजकल हिन्दुस्तान के लोग इस वात फे कहने में बड़ा भारी भ्रमिमान किया करते है कि स्त्री और पुरुष बराबर नहीं होसक्त हैँ। बेशक यह उनका कहना ठीक £ और शास्त्र भी ऐसा दी कता है, परन्तु धरमिमान करनेफे योग्य तो परप तव ट टोसक्ता ই जव यद सिया से श्रधिक्र चत संयम करफे अपना पश्पपना दिखाचे, खियौ से भी अधिकः चिप भोगो के दस होने से तो थे अपने को चिया से भी धरिया सिद्ध करते ट श्रौर नपसक वनक्रर तिरस्कार के योग्य दोते द तव श्रभिमान क्रिस धाठकाकरते दं। खी लिखकर शाखं दोपो' की चाने जिला है बह तो वात-विधवा होकर भी जन्म भर ब्रह्मचारिणी रहसके ओर परुप जिनको शास्म गुद फो लान लिखा है चह बडे होकर भी, मृत्यु के निकट पहुँच कर भी विना खी फेन रदसकतं ओर पक घोरी सी दोकरी ब्याह लानेमें कुछ भी सजा ८ मान। यह अभिमान को बात है था मद्दा लक्ञा की | उचित तो यद গান্ধি पुरुष अपने वरास्ते तो पूर्ण पह्मचय पालन करना कुछ्भी मुश्किल न 'समभते और शीलसंयम से रहना तो पत्येक्त पुरुष ঈ वास्ते




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