ज्योत्स्ना | Jyotsana

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Jyotsana by श्री सुमित्रानन्दन पंत - Sumitranandan Pant

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ज्योह्स्ना ७ ऊपर उठाकर उसके स्वभाव को मार्जित बनाएगी । चारोओर स्नेह, सुख, सौदर्य, संगीत का सागर उमड़ उठेगा। एक दाब्द में, संसार में स्वग उतर आएगा । छाया--( आनंद जोर आात्चर्य से) संसार मे स्वग | ऐसा क्या संभव हो सकता है; जीजी ! संध्या-संपतार कभी से आदरो-स्थिति के स्वप्न देखता आ रहा है | मनुष्य अपनी उबर बुद्धि के अनेक विचारों; हृदय की मनोरम भावनाओं-वाल्पनाओं से निर्मित, सब प्रकार से पूर्ण; आदर्य परिस्थितियों के लोक मे रहना चाहता है। समय-समय पर उसने जीवन की पूर्णता को अनेक स्वरूप दे डाले है। ज्ञान-विज्ञान के बल से अनेक मानसिक, भौतिक दाक्तियों पर विजय प्राप्त कर्‌ ठी है। अब वह आदर्श-स्थिति का उपभोग 'करना चाहता है । छाया--विधाता के विधान का रहस्य अज्ञिय है; जीजी ! मैं अनादि काल से देखती आई हूँ, संसार मे चिरकाढ तक कोई भी स्थिति नहीं ठहर सकती; इससे सृष्टि के स्वतंत्र विकास मे बाघा पड़ती है । ू सहसा दश्किण की खिड़की का परदा हिरने रुगता हैं । पदन झरोखे से कूदकर अंदर आता है | पवन सुंदर, स्वस्थ, अनिरातप से पोषित द्मित- मुख युवक, बदन में हठके आसमानी रंग की जांठी, जिसमें यत्र-तत्र 'फूकों का पसग कमा है; घृ घुराठी, भूरी अठकों से उठी करियों, हाथ 2 च्झ में आन की भंजरी, गठे में पत्ते की रुचीती टहनी का 'घनुष 1 पवन




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