भिक्षु - विचार दर्शन | Bhikshu Vichar Darshan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5 MB
कुल पष्ठ :
240
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
मुनि नथमल जी का जन्म राजस्थान के झुंझुनूं जिले के टमकोर ग्राम में 1920 में हुआ उन्होने 1930 में अपनी 10वर्ष की अल्प आयु में उस समय के तेरापंथ धर्मसंघ के अष्टमाचार्य कालुराम जी के कर कमलो से जैन भागवत दिक्षा ग्रहण की,उन्होने अणुव्रत,प्रेक्षाध्यान,जिवन विज्ञान आदि विषयों पर साहित्य का सर्जन किया।तेरापंथ घर्म संघ के नवमाचार्य आचार्य तुलसी के अंतरग सहयोगी के रुप में रहे एंव 1995 में उन्होने दशमाचार्य के रुप में सेवाएं दी,वे प्राकृत,संस्कृत आदि भाषाओं के पंडित के रुप में व उच्च कोटी के दार्शनिक के रुप में ख्याति अर्जित की।उनका स्वर्गवास 9 मई 2010 को राजस्थान के सरदारशहर कस्बे में हुआ।
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)भूमिका ০7
वात भी विद्येष महत्व की नहीं है। इसमें सन्देह नहीं कि बौद्ध बनने के
बाद उसने अनेक विहार बनवाएं और ऐसी व्यवस्था की कि हजारो भिक्षुओ का
निर्वह् सुखपूर्वक होता रहै 1 दन्तकथा तो यह् है कि अशोक ने चौरासी हजार
विहार बनवाए, पर इसमे तथ्य इतना ही जान पडता है कि अशोक का अनुकरण
कर उसकी प्रजा ने और आस-पास के राजाओ ने हजारो विहार बनवाए और
उनकी सख्या अस्सी-नव्बे हजार तक पहुँची ।
“उदोक राजा के इस कार्यं से वौद्ध भिक्षु-सघ परिग्रहवान् वना 1 भिक्षुकी
निजौ सपत्ति तो केवर तीन चीवर ओर एक भिक्षा-पात्र भर थी। पर सघ के
लिए रहने की एकाघ जगह लेने की अनुमति बुद्ध-काल से ही थी 1 उस्रं जगह
पर मालिकी गहस्थ की होती थी और वहीं उसकी मरम्मत आदि करता था।
भिक्षु-सघ इन स्थानों में केवल चातुर्मास-भर रहता और दोष आठ महीने प्रवास
करता हुआ लोगो को उपदेश दिया करता था। चातुर्मास के अतिरिक्त यदि
भिक्षु-सघ किसी स्थान पर अधिक दिन रह जाता था, तो लोग उसकी टीका-
टिप्पणी करने लगते थे । पर अशोक-काल के बाद यह परिस्थिति बिल्कुल बदल
गई । बडे-वडे विहार चन गए मौर उनमें भिक्षु स्थायी रूप से रहने रगे 1१
आचार्यं भिक्षु ने {वि० श्वं शती में ) अपने समय की स्थिति का
जो चित्र खीचा है, वह ( वि० ८-६ वी शती के ) हरिभद्रसूरि से बहुत भिन्न
नही है। वे लिखते हैं--
१--आज के साधु अपने लिए वनाए हुए स्थानकों में रहते हैं ।९
२-पस्तक, पन्ते, उपाश्रय को मो लिवाते है 13
३- दूसरों कौ निन्दा मेँ रत रहते है ।*
१--भारतीय संसृति ओर इत्तिदास प° ६६ ६७
२--आचार री चौपई १२
आधाकर्मी थानक में रहे तो, ते पांडे चारित में भेद जी।
नशीत रे द्रम डदेशे, प्यार महीना रो छेद जी!
३-षदी १ ७
पुस्तक पातर उपाश्रादिक, लिवरावे ले के नाम লী।
अछा भूडाफदि मो बतावे, ते करे ग्रहस्थ नो काम जी ॥
ধমনী ৭ ৭৩
पर निंदा में राता माता, चित्त में नहीं सतोष जी।
चीर क्यो दसमां अंग में, तिण वचन में तेरे दोष जी॥
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