हिन्दुस्तानी त्रैमासिक शोध पत्रिका | Hindustani Tramasik Shodh Patrika

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Book Image : हिन्दुस्तानी त्रैमासिक शोध पत्रिका  - Hindustani Tramasik Shodh Patrika

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१४ हिन्दुस्तानी सामे ४१ (घिन्वू-अनडुह) का ऐसा मांस खा सकते थे जो अंसन (“हड' और कोमल ) हो । आश्वलायन गृह्य सूत्र के अनुसार रुद्र को प्रसब्न करते के लिए बैल का बलिदान दिया जाता था (द्रा महादेवाय जुण्टो वर्धस्वेति 1--४.८.८) । पुनः आहुतियाँ इस प्रकार देने का विधात दिया गया है--- “हुराय सुदाय शर्वाय शिवाय भवाय महादेवोग्राय भीमाय पशुपत्तये रुद्राय शंकरायेशानाय स्वाहेति {१७ बैल दी पूं, चमडा, सिर भौर पैर अग्नि में डालें । वेदों के आधार पर कर्मकाण्ड का प्रचार तथा उसमें भी हिंसा आदि का प्रशोग होना उपनिषदु-काल से ही बुद्धिवादियों को खटक रहा था। वे लोग वर्मकाण्ड के स्थाने पर ज्ञानकाण्ड के उपासक होते जा रहे थे और यहु शावाज उठने लगी थी कि इस प्रकार के याज्षिक-भनुष्ठान अब जर्जर नाव के समान हों गए ( प्लवा हयेता अहडा यज्ञ रूपा: ) । यज्ञ-प्रधान प्राचीन वैदिक धर्म के विरुद्ध प्रतिक्रिया की प्रवृत्ति प्रारम्भ हुई और जनता को बहुत बड़ी संख्या वैदिक संहिताओ के प्राजल्य से इन्कार कर बुद्धि और तर्क पर आश्रित नये धर्मो के अनुसरण मे प्रवृत्त हो गर्द) डॉ० सप्पूर्णाननद ने ठीक ही लिखा है-- “बैदिक यज्ञों में कई ऐसे थे जिनमें पशु आलभन, पशु की हिंसा होती थी । वह बन्द ती हो ही गए, उनके साथ दूसरे यज्ञयाग भी उठ गए । ১৫১৫১ यज्ञो में केवल द्विज़ों को अधिकार था, परल्तु वुद्धदेव का यह उपदेश था कि आध्यात्मिक बातों में मनुष्य मात्र को समान रूप से अधिकार है) इससे भी वैदिक कर्मकाण्ड के प्रति अश्रद्धा हो गई! >( > >< आध्यात्मिक जीवन का केन्द्र थ तिविहित कर्म्म से हट गया (प० ११४)”-- हिन्दू देव परिवार का विक्राप शुरू-शुरू में यज्ञों का विधान बहुत ही सरल था; परन्तु बाद (ब्राह्मण-काल) में पशुओं के बलि-यज्चों का प्राघान्य हो गया। देश मे हिंसा का प्रचार इतना बढ़ गया था कि मूल पशुओं का वध केवल जीभ के स्थादहतु किया जाता था। कोई उत्सव हो था समारोह, धार्मिकानुष्ठान हो अथवा पर्व-त्योहार, पशुबलि के बिना सम्पन्न नहीं होता था । पितर सस्तुष्टि, आतिथ्य तथा तन्त्र विद्यः में यशुओं को बलिवेदी पर चंढ़ा देता धामिक अनुष्ठान था। शतपथ ब्राह्मण! में झातिथ्य-सत्कार के लिए एक “महोक्ष' (महात्र बैल) अथवा 'महाज' (महात््‌ बकरा) के वंध का नियमित विधान था। अतिधि को गोध्न' भी कहते हैं जिनके आतिथ्य के लिए थ्रो की बलि दी जाय । अतिथि-सम्मान में गोवत्स की हत्या करने की प्रया भवभूति (वि० सं० प्वी शताब्दी) के समय में थी (देखे--- “उक्तररामचरितम्‌' के चतुर्थ अंक मधुपर्क' का उल्लेख)|। मधुपर्क के लिए गवात्स्भ, का विधान आवश्यक था । इसकी व्याख्या करते हुए पं» श्री कान्तानाथ शास्त्री तेशजु ने लिखा है--- “गृहसूत्रकारों का कहता है कि आचार्य, ऋत्विक, वैवाह्म, राजा, भ्रियजन, जो उत्कृष्ट जाति के हों अथवा समान जाति के और स्नातक (ग्रेजुएट्स) अर्घ्य (पूज्य) होते हैं। इसमे कोई जब किसी के घर भावे तो ग्हपत्ति को चाहिए कि इनका मधुपर्कादि के द्वारा सत्तर करे । सत्कार बिना मांस के नहीं होता । अतः इसके लिये गवालम्भ करने को कहा है। भधुपर्क प्राशन हो जाने पर गृहपति खड्ग और गौ पूज्य व्यक्ति के सामने करे । अर्घ्य (पूज्य व्यक्ति) यदि मांस छाने वाला होतो मारनेकी आज्ञा दे) कदि बहू




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