श्रावक धर्म - दर्शन | Shravakdharam Darshan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १७ ) ब्रत के जो अतिचार है, वे भोग पर ही घटित होते है, अत उन्होने अन्य पांच स्वतन्त्र अतिचारो का भी वर्णन किया है । इसी तरह ब्रह्मचर्य के अतिचारो मे भी इत्वरिका- परिग्रहीतागमन और इत्वरिका-अपरिग्रहीतागमन मे प्रथम को रखकर द्वितीय को विटत्व नामक अतिचार की स्वतन्त्र कल्पना की है 1 व्रतो के पश्चात्‌ उन्होने ११ प्रतिमाओ का भी वर्णेन किया है। आचार्यं जिनसेन ने आदि पुराण मे ब्राह्मण वर्ण की उत्पत्ति बताई है । वहाँ पर उन्होने पक्ष, चर्या गौर साधन रूप से आवकधघमं का प्रतिपादन किया है 15९ विज्ञो का मानना है कि उनके सामने कोई उपासक सूत्र रहा होगा भौर उसी के आघार पर उन्होने प्रतिपादन किया । उन्होने १२ ब्रतो के नामो मे किसी भी प्रकार का परि- वर्तने नही किया दै, पर सूल आठ गुणो मे मधू के स्थानं पर उन्होने झा त-त्याग को आवशध्यक माना है । यदि द्य.त को अन्य व्यसनो का उपलक्षण माना जाय तो पाक्षिक श्रावक को कम से দল ও व्यसनो का परित्याग गौर्‌ आठ मूलगुणो को धारण करना होगा । यही कारण है किं बादमे प० आशाधर जी आदि ने पाक्षिक श्रावक ॐ लिए उक्त कतंन्य बताये हैं | जिनमेन ने “हरिवद्ञ पुराण” मे भी श्रावकाचार सम्बन्ध मे ७७ इलोको मे प्रकाश डाला है 1 उसमे बारह ब्रत, सलेखना आदि के अतिचारो का वर्णन किया है ।* भाचायें सोमदेव के “यशस्तिलकचम्पू” के छठवें-सातवें व आठवें आदइवासो मे श्रावक घमं पर विस्तार से वर्णेन है । उनका मूल आघार “रत्नकरडक श्रावकाचार' हे । उन्दोने छठे आइवास मे अन्य दनो के मन्तव्यो की चर्चा कर्‌ उनके दारां प्रति- पादित मोक्ष के स्वरूप पर चितन किया भौर अन्त मे उन समी का निरसन करे जनद्शंन द्वारा निरूपित मोक्ष पर चिन्तन किया \ उस मोक्ष का मागं सम्यग्दर्दान, ज्ञान, चारित्र है 1 आप्त के स्वरूप की विस्तार के साथ লীলাল্া की! गौर मम्यक्त्व के आठ अगो का नवीन क्षौली से प्रतिपादन किया । मम्यक्त्व के विभिन्न प्रकार, उनके दोप का वर्णन कर सम्यक्त्व की महत्ता पर भरकाश डाला । सम्यक्त्व से श्रेष्ठ गति, ज्ञान से कीति, भौर चारित्र से प्रजा, एन तीनो फे भिलने मे मुक्ति प्राण होती ३८ विपयविपयोऽनुप्े्ानुस्मृतिरतिलौल्यमति ृपानुमवी । मोगोपमोगपरिमान्यतिक्रमा पच कथ्यते । +-रत्न फ०---६० ३६ जन्यविवाहकरणानगन्नीडा चिटत्व. विपुलतृष । टत्वरियांगमनन चास्मरस्थ पच व्यतीचारश ॥ --रत्न प१०---६० ४० आदिपुराण--१४५ ४१ हरिविश धुराण राय ५८, घ्योक० ७७




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