अर्थशास्त्र | Arthshastra

Book Image : अर्थशास्त्र  - Arthshastra

लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :

मुरलीधर जोशी - Muralidhar Joshi

No Information available about मुरलीधर जोशी - Muralidhar Joshi

Add Infomation AboutMuralidhar Joshi

सेवाराम शर्मा - Sevaram Sharma

No Information available about सेवाराम शर्मा - Sevaram Sharma

Add Infomation AboutSevaram Sharma

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
अयेश्ञास्त्रका स्वरूप और क्षेत्र ३ कौ पूतिक लिए विविच प्रकारके कल कारलानो, वैक, रेल, जहाज, डाक ग्रौर सार इत्पदिका निर्माण हुआ है। इन्ही आवश्यकताश्रो की पूर्तिके लिए साधा- रणतः मनुष्य चिन्तित रहता है श्नौरकठिन परिश्रम तथा दौडघूप करता ই। সলঘন यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं हैं कि मनुष्य इस विषयकी झोर विशेषरूप से आक्ृष्ट हुआ है तथा उसने इसके अध्ययनकी चेष्टा की है जिसके परिणामस्वरूप एक शास्त्रकी उत्पत्ति हुई, जिसे अथंश्ास्त्र कहते है। अर्थशास्त्रके नामही से उस विद्याका बोध होता है, जिसका सम्बन्ध र्थ अर्थात्‌ धन, द्रव्य और सम्पत्तिसे हो। हम देखते मी है कि मनुष्यके समयका एक बडा भागं ब्र्थके उपार्जन श्रौर उसके द्वारा अपनी आवश्यकताग्रोकी पूत्तिमें व्यय होता है। जिन झावश्यकताओकी पूर्ति अर्थ द्वारा होसकती हैं उनको आधिक श्रावरयक्ताएु कट्‌ सकते हे। ्राजकलके भ्राथिक समाजमें प्राय, सभी ग्रावश्य- कताग्रोकी पूतिके लिए प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूपमें अ्र्थकी आवद्यक्ता पडती है) यह कहना ठोक नही होगा कि मनुप्यकी कुछ आवश्यक्ताए भ्राथिक होती है श्रोर कुछ झनाथिक और तत्सम्वन्धी आथिक तथा झनाथिक वाय॑ भी होते हें। वास्तव में प्रत्येक प्रावश्यक्ता तथा कार्यका कम या अ्रधिक मात्रा में श्राथिक पक्ष अवश्य रहता है। झ्तएव इन कार्यो और अआ्रावश्यकताओसे प्र्थशास्त्रका सम्बन्ध हो जाता है तभी अर्थशास्त्री को उनका अध्ययन करना पडता है! मनुष्यकी ग्रावश्यक्ताए जहा ्रपरिमित होती है, वही उनी पूतिके साधन प्रिमितभी होते टै। ग्रतएव मनुष्य ग्रपनेको इस प्रकारकी परिस्थिति में पाता है जिसमें उसे यह निर्णय करना पडता है कि किन आवश्यकताओकी पूर्ति की जावे और किम अश में । হুদ देखते हे कि प्रत्येक कुटुम्ब की झाय सीमित होती है परन्तु उसके सामने अनेक प्रकारकी श्रावश्यकताए रहती है, जिन सभी की तृप्ति इस सीमित आय से नहीं हो सकती क्योकि ग्राय का जो भाग एक आवश्यकता की पूर्ति पर व्यय किया जाता है, वह दूसरी ग्रावश्यकताकी पूर्ति के लिए उपलब्ध नही रहता। अर्थात्‌ एक आवश्यकताकी पूर्ति का अर्थ हुआ किसी दूसरी इच्छा का अतृप्त रहना। मनुष्यकी आवश्यकताओकी पूति उपभोगकी वस्तुओसे होती है। समाजके सभी लोगो को सभी आावश्यकताओके लिए उपभोगकी वस्तुएं पर्याप्त नही होती है। इसका प्रधान कारण यही है कि इन वस्तुओको उन्पन्न




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now