आयरो तह आयार - चूला | Ayaro Tah Ayar Chula

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Ayaro Tah Ayar Chula by आचार्य तुलसी - Acharya Tulsi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पम्पादकीय र भ्रुत को कण्ठस्थ करने की पद्धति, लिपि को सुविधा ओर कम लिखने की मनोवृत्ति--पाठ-सक्षेपके ये तीनों कारण संभाव्य ह । इनसे भले ही आशय की न्यूनता न हुई हो, किन्तू ग्रन्थ-सोन्दर्य अवश्य न्‍्यून हुआ है । पाठक की कठिनाइयाँ भी बढ़ी है । जिन मुनियों के समग्र आगम-साहित्य कण्ठस्थ था, वे जावे या वण्णग' द्वारा संकेतित पाठ का अनुसंधान कर पूर्वापर की सम्बन्धन्यीजना कर सकते हैं। किन्तु प्रतिलिपियों के आधार पर पढ़ने वाला मुनि बर्ग ऐसा नहीं कर सक्रता | उसके लिए जाब' या वण्णग' द्वारा संकेतित पाठ बहुत लाभदायी सिद्ध नहीं हुआ है। इसका हम प्रत्यक्ष अनुभव॒ कर रहे हैं। इसी कठिनाई तथा यन्थ-सोन्दर्य की दृष्टि से हमारे बाचना प्रमुख आचार्यश्षी वुलसी ने चाहा की संक्षपीकृत पाठ को पुनः पूर्ति को जाए । हमने अधिकांश स्थलों में संक्षिप्त पाठ की पूर्ति का है। उसकी सूचना के लिए विन्दू- संकेत दिया राया है। आयारो तथा आयार-चूला के पूर्ति-स्थलों के निर्देश को सूचना प्रथम और द्वितीय परिशिष्ट में दी गई है प० वचरदाम दाशः कैः अनुसार पाठ का मंक्षेवोकरण देवस्िगणि क्षमाश्रमण ने किया था । उन्होने लिष्डा -- देवर्द्धिगणिक्षमाश्रमण ने आगमी क ग्रन्ध बद्ध करते समय कुछ महत्त्वपरर्ण बाने यान में रखीं । जहाँ-जहाँ शास्त्रों में समान पाठ आए অলী बहों उनकी पुनराबृतति थे करते हुए उनके लिए एक विशेष यन्ध अथवा स्थान फा निर्देश कर दिया । जेसे--जिह। उबबाइए! জিকা प्रण्णबणाए' दृत्यादि | एक ही ग्रन्थ में वही बात बार बार आने पर उसे पुनः पृनः ने लिखते हुए जाब! शब्द का प्रयोग करते हुए उसका अन्तिम शब्द लिख दिया । जेसे-- जाग कुमारा जाव विहरंति', न्तेणं कान्तेणं जाव पत्म णिग्गया' इत्यादि /* इस परम्परा का प्रारम्भ भले ही देवर्द्धिगणि ने किया हो, किन्सू इसका विकास उनके उत्तग्बती-छाल में भी होता रहा है ! अमान में उपलब्ध आदर्शा' में सक्षेपी कृत पाठ की एकरूपना नहीं है। एक आदर में कोई सत्र संक्षिप्त है तो दूसरे में बह समग्र रूप से लिखित है! टीकाकारों ने स्थान स्थान पर इसका उल्लेख भी किया है। उदाहरण के लिए श्पपातिक सत्र में “अयपायाणि वा जाब अण्णयराह না” तथा अयवंधर्णाणि बा जाबव अण्णयराइ बा--ये दो पार्ठाश मिलते हैं। वृत्तिकार के सामने जो मुख्य आदश्श थे, उनमें ये दोनों संक्षिप्त रूप में थे, किन्तु दूसरे आद्शों में ये समय रूप में भी प्राप्त थे। वृत्तिकार ने इसका उल्लेख किया है।” लिपिकर्ता १. जैन साहित्य का बुहद्व इतिहास, पृ० ८१ । २. औपपातिक वृत्ति, पत्र १७७ : पुस्तकान्तरे समग्रमिद मूत्रद्यमस्सयेबेति ।




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