दीर्ध निकाय | Dirgha Nikaya

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Book Image : दीर्ध निकाय  - Dirgha Nikaya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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४] १-ब्रह्मजाल-युत्त [ दीघ० ११ “पिक्षओं ! अथवा०--जिस प्रकार कितने श्रमण और ब्राह्मण ० इस प्रकार अपनेकी सजने- बजनेंमें छगे रहते है, जैसे---उबटन ऊगवाना, दरीरको मलवाना, दूसरेके हाथ नहाना, दारीर दववाना, दर्पण, अजन, माला, रेप, मुख चूणे (+-पाउडर), मुख-लेपन, हाथवे आभूषण, शिखाम कुछ बाँधना, छल्ली, तलवार, छाता, सुन्दर जूता, टोपी, मणि, चेंबर, लम्बे-छम्बे झालरवालछे साफ उजछे कपढ्रे इत्यादि, उम्‌ प्रकार श्रमण गौतम अपनेवो सजने-धजनेमे नही छगा रहता। “भिक्षुजो ! भयवा०--जिपर प्रकार क्तिने श्रमण ओर ब्राह्मण इस प्रवारकी व्यर्थकी (>-तिरदचीन) कथामे छगे रहते हे, जैसे--राजकथा, चोर, महामत्री, सेना, भय, युद्ध, अन्न, पान, वस्त्र, शय्या, माला, गन्ध, जाति, रय, ग्राम, निगम, नगर, जनपद, सत्री, सूर, बौरस्ता (= विशिखा), पनघट, और भूत प्रेतकी कथायें, ससारकी विविध घटनाएँ, सामुद्रिक घटनाएँ, तथा इसी तरहकी इधर- उधरकी जनश्रुतियां, उस प्रकार श्रमण गौतम तिरख्चने कथाओमें नही लगता । “भिक्षुओ ! अयवा०--जिप्त प्रकार कितने श्रमण ओर ब्राह्यण० दत प्रकारकी टा झगद्दोवी बातोमें छगे रहते हे, जैसे-तुम इस मत (+-धर्मविनय ) को नही जानते, मे ० जानता हूँ, तुम० वया जानोगे ? तुमने इसे ठीक नहीं समझा है, में इसे दीक-ठीक समझता हूँ, में पगनिकूठ कहता हूँ, तुम धर्म विस्द्ध कहते हो; जो पहले कहना चाहिए था, उसे तुमने पीछे कह दिया, और जो पीछे कहना चाहिए था, उसे पहुछे कह दिया, वाते कट गई, तुमपर दोपारोपण किया गया, तुम प्रव लिये गये, इस आपत्तिमे छूटनेकी कोशिश करो, यदि सको, तो उत्तर दो इत्यादि, इस प्रकार श्रमण गौतम रुष्ठाई-क्षगछ्वेवी चातमे नहीं रहता। पप्रक्षुओ | अथवा०--जिस प्रकार कितने श्रमण और ब्राह्मण० (इधर-उधर) जैसे---राजा, भहामस्वी, क्षत्रिय, ब्राह्मणों, गृहस्थों, बुसारोरे दृतका वाम करते फिरिते है, वहाँ जाओ, यहाँ आओ, यह लाभो, यद्‌ वहाँ ले जाओ इत्यादि, उस प्रवार श्रमण गौतम दूतका বাদ নত करता। দমিশজী। অথনাণ-_জিল সন্ধা क्तिने श्रमण और ब्राह्मण० पाखडी और वचव, बातूनी, जोतिपके पेशावाछे, जादू-मस्त्र दिखानेवाद़े और छामसे छामवी पोज करते है, वैसा श्रमण गौतम मही हे (3) महाशील जिस प्रकार रितने श्रमण और ब्राह्मण श्रद्धापूर्वव दिये गये भोजनकों फायर হ্যা সা हीन (-«मीच) विद्यागे जीवन विताते है, जैसे--अगविद्या, उत्पाद ० स्वप्न०, छक्षण ०, मूपिव-विष ३, अग्नि हवन, दर्वी-होम, तुप-होम, कण-होम, सण्टठ-होम, धृत-होम, व खनहोम॑, मुसमें घी केवर कृन्तते होम, रघिर-्होम, वास्तुविद्या, क्षेत्रविद्या, शिब०, भूत०, भूरि०, सर्प, विपण ০ द-प विया, भपित विया, पलि०, शसपरिप्राण (मन्व जाप, जिरागे रद्यदमे वाण शरीरपर न भिरे), जोर पृगगय, उस श्रदार প্রমথ गोतम द प्रराखी रीन विदाने निन्दित जीवन नह वरिनाता 1 धभशुओ। अथवा०--जिस प्रतार उितने थ्रमण ओर ब्राह्मण० इस प्राणी होने प्रिद विन्दित जीवा शितते है, जैग--मणजि-एक्षण, बस्त्र०, देण्ट०, असि०, वाण, पनुप०, आपुध०, स्त्री०, पुपर, युमार०, गुमाधे०, दास, दामी ०, म्नि असय र, भमर, युपम०, गाय०, सज, मेप०, मुर्गा ०, बंतर ०, गोह०, परणिया०, पच्छय० और मृगठ्श्षण, उस प्रसार श्रमण गौतम दस प्रशारकी हीन মিশা নিলি योवा नर्द बिवाता | '[নশনী ! अपवार--तिग दरगार নিলি जोव दिति है, यमे--रमा यारर বিয়া जावेगा नही हि जावेगा, महाँगा शा बाहर मिर्द जायगा, बाहणा राज यहाँ आगेगा,




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