अंगराज | Angraj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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५ ६२९ £ है । एक युद्ध-सैनिक को संयम, उत्साह, साहस, धेयं श्रौर पौरुष-प्रराक्रम आदि जिन स्वाभाविक साधनों की आवश्यकता द्वोतो है, प्रत्येक जीवन-रण- यात्री को स्वाधीनता और सफलता के लिये किसी-न-किसी अंश में उन्हीं को सहायता लेनी पढ़ती है। विजय-पराजय, उत्थान-पतन के अवसर सेनिक जीवन में ही नहीं, सर्वलाधारण के दुनिक जीवन में नित्य आते रहते हैं। रखण-प्रराक्रम में उन्हीं मानवी शक्तियों का चरमोत्कर्ष देखने को मिलता है, जिनकी हमें निस्य आवश्यकता होती है । रण तो केवल्ष पुरुषार्थी का परीक्षा स्थल है । जीवन एवं युद्ध की एकरूपता का प्रबल प्रमाण यह दै कि गीता की जो कर्म-शिक्षा कुरुचेत्र के सेनिक के काम की थी, वही कमक्ष त्र के साधारण व्यक्ति के लिये भी उतनी द्वी उपयोगी है। गीता से युद्ध-नीति पर नहीं, सम्पूर्ण जीवन-नीति पर प्रकाश पड़ता है | वह सेनिकों को नहीं, हिन्दू-मात्र कि धर्म॑पुरतक है| भगवान्‌ का यह आदेश---*छुद्र' हृदय-दौ ब॑र्यं स्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप !” अजु न के लिये ही नहीं, सर्वसाधारण के लिये दे । वास्तव में, वीरता द्वी सजीवता है। वीररस द्वी जीवन का मुख्य रस है 1 भावज-भक्त भावुक लोक भलेदहीश्गार को रसराज मानें, परन्तु वस्तुतः सम्पूणं जीवन का वेतन्यता-प्रदायक रस वीररस द्वी है और वीरेश्वर (शिव) ही यथानाम रसनायक हैँ । कम-ते-कम पुरुष-प्रकृति का .पोषक रसायन वही है । पुरब्राधं प्रब्रल होने पर हीश्'गार अ्रद्वत-जेसा लगता है, छ्मन्यथा विष बन जाता है १ वोरता भ्रायं-चरित्र की विशेषता है । वेदकालीन श्रादिमानव का यही संकल्प था कि हम शरीर से नीरोग दों धरोर उत्तम वीर बने--“श्ररिष्टाः स्याम तन्वा सुवीराः-ऋण्वेद्‌ । भारतोय समाज में युद्ध में दी नहीं, धर्म, कम, सत्य, दया, दान श्रौर बुद्धि के कामों में सवत्र शौरय-पराक्रम का ही मान है। कौटिल्य ने तो दानवीर को ही शुर-शिरोप्णि कहा दै--“अतिशूरों दानशूरः”ः। सबसे बढ़ी वीरता खयंम में देखी जाती है---कनम्दूप-दप दुलने विरला मनुष्य: ।” किसी ने ठीक क॒द्दा है कि महा- पुरुषों की कथा आत्मसंयम की कथा है। भागवत में कृष्ण ने उद्धव से कहा है कि आत्मविजय या आत्मसंयम ही सच्ली शुरता है--स्वभाव- विजस: शो! आत्मवीरता स्वार्थ-लिद्धि तथा भौतिक पऐश्वर्य से नहीं, क्तेब्य- परायणता झौर त्याग से प्रमाणित होती है। युद्ध में भी हम स्वेच्छाचारिता अ्रत्थाचार, लूटपाट और धोखे से भी शत्न की हत्या करके स्वयं जीवित कचे रहने को महत्व नहीं देते। उस्तजितावस्था मे भी यथधाधमं माननोचित




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