सद्धर्म मण्डनम् | Sadarm Mandanam

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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© पाषण्डी का अथं श्रमविव्वसनकार श्रमविच्वसन पृष्ठ ४४ परं प्रहनव्याकरण सत्र के दूसरे सवर द्वार का पाठ लिखकर उसकी समानोचना करते हुए लिखते ई--“इहा कट्यो-सत्य वचन साधु ने दरा योग्य छै । ते माय अनेक पापडी अन्य दर्गनी पिण आदरयो कल्यो, ते सत्य-लोक मे सारमूत कल्यो । सत्य महासमूद्र थकौ पिण गभीर कल्यो, मेह यकौ स्थिर कल्यो, एहवा धी मगवन्ते सत्य ने वखाण्यो । ते सत्य ने यन्य दर्गनी पिण धार्यो । । तो ते सत्य ने खोटो, अशुद्ध किम कहिये ? आज्ञा बाहिर किम किये ? आना वाहिरे कहे तो तेनी ऊधी श्रद्धा छै। पिण निरवद्य सव्य तो श्री वीतरागे सरायो ते आज्ञा वाहिरे नही ?” प्रशनव्याकरण सूत्र का वह पाठ लिखकर समाधान कर रहे है--- “अणेग पासण्डि परिगगहिय ज त लोकम्मिसारभूयं गंभीरतरं महासमुद्दामो थिरतर मेरुपव्वआओ |” --प्ररनन्प्राकरण सूत्र, सवर्र, २४ “सत्य रूप महाव्रत कौ विविध व्रतवारियो नं स्वीकार किया है ! यह्‌ त्रिलोक मे सारभूत है। महा-समुद्र से भी गंभीर और मेरु पर्वत से भी अधिक स्थिर है ।” प्रस्तुत पाठ में अणेगयासण्डि परिग्गहिय' शब्द का प्रयोग हुआ है। इसकी व्याख्या करते हुए टीकाकार ने लिखा है-- “अनेक पाषण्डि परिगृहीत नानाविध करतिभिरगीकृत. 1“ । “अनेक प्रकार के ब्रतवारियों द्वारा स्वीकृत ब्रत का नाम “पाषण्ड” है और जिसमें वह्‌ व्रत हो, उसे पाषण्डी कहते हैं । उन पापण्डियो-ब्रतवारियो द्वारा गृद्वीत होने से सत्य-न्रत 'अणेगवासण्डि परिग्गहिय” कहा गया है। यद्यपि आजकल लोकभापा में पापण्डि' शब्द दाम्भिक अर्य में भी प्रयुक्त होता है, परन्तु यहाँ यह शब्द ब्रतवारी के अयं मे प्रयुक्त हुमा है, दाम्भिक के अर्थं मेँ नही । दजवैकालिक सूत्र अच्ययन २ निर्युक्ति गाया १५८ की टीका में “पासण्ड” शब्द की व्यार्पा इस प्रकार की है- “प्रषण्ड अतमित्याहु स्तच्यस्यास्त्यमल भुवि, | स पाषण्डी वदन्त्यन्ये कमेपादात्‌ विनिगतः । “ पाषण्डी का मयं ] [ ८७ ` की 12




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