प्रसाद जी की कला | Prasad Ji Ki Kala
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6 MB
कुल पष्ठ :
194
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)लादौ कौ कवि ९६
ओर मान की करुणा में ही अपूबे आह्ाद को अनुभव कर निक-
लता है--
और के प्रति प्रेम तुम्हारा, इसका मुझको दुःख नहीं,
जिसके त्रम दो एक सहारा, वही न मूला नाय करटी ]
निदैय होकर श्रपने प्रति, श्रषने को तमको सीप दिया
प्रेम नहीं करुणा करने का, छण मर तुमने समय दिया |
आगे चल फर यह प्रेम लोक सीमा छोड़कर अलौकिक--दिव्य
हो जाता है | यह प्रसादजी का उदेश्य प्रारम्भ में दी था-
“इस पथ का उदेश्य नदीं ই) शान्त-मवन में टिक रहना,
किन्तु पहुँचना उस सीमा तक जि्षके श्रागे राह नदीं ||
उनके इस दिव्य-प्रेम के विषय में समालोचकों की दो सम्मतियाँ
हैं। कुछ विद्वानों का मत है कि प्रधादजी अच्ष्ट से दृष्ट की ओर आए
और दूसरों की घारणा है कि वे ज्ञात से अज्ञात की ओर गए । वास्तव
में कवि ने राम-कृष्ण आदि को भक्ति-विषयक रचनाएँ भी की थीं
परन्तु प्राधान्य उनसें रहस्यात्मक-सावनाओं का ही रहा; उनकी वृत्ति
अज्ञात में हीं अधिक रमी ।
্ देखिए कवि को उस प्रियतम की माँकी पहली वार किंस प्रकार
से हुईं --
शशि-मुख पर घूघठ डाले
ক্র में दीप छिपाए
जीवन की गोधूली में
कौतूहल से तुम आए, ! ~
इसी प्रकार एक बार आँख खोल देखो तो चन्द्रलोक से
रञ्जित कोमल बादल नम में छागए
जिस पर पवन सहारे तुम दो श्रा रहे |
धीरे धीरे यह नशा इतना व्यापक हो जाता है कि कवि को
संसार में सबेत्र ही उस अपूर्व रूप के दर्शन होने लगते ইঁ.
जल-थल माझत व्योम में छाया है सब और ५
खोज-खोन कर खोगई में पागल प्रेमनविभोर |
कवि वार-वार समभले का प्रयत्न करता है, आखिर यह सब
घेभव किसका है--
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