प्रेमसुधा भाग - ७ | Premsudha Part - 7

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Book Image : प्रेमसुधा भाग - ७  - Premsudha Part - 7

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सच्ची भगवद्भक्ति ই सज्जनो ! व्यावर की यह इतनी वटी विरादरी हूँ। यहाँ स्यानकवासियो कै ५००-६०० घर है। किन्तु जहाँ श्राप इन सांसारिक कार्यो में इतना व्यय करते है, वहा धर्म कार्य के लिए भो कुछ व्यय क्यो नही करते ? यहा कोई धार्मिक सस्या क्यो नही ह्‌ ? श्राप श्रपने वालको मे उत्तम वामिक सस्कार क्यो नही डालते ? उन्हे केवल किसी प्रकार लूटकर खाना-कमाना हौ क्यो सिखाना चाहते है ? बच्चे अलग-अलग ससस्‍्थाओ्ं मे जाकर पढते हें। जिस धर्म की वह सस्था होती है, उसी धमं कै सस्कार वालक मे पड जाते ह । माता-पिता को यह पता ही नही होता कि बालक में कैसे सस्कार पड रहे है । यह अत्यन्त खेद की वात है। यदि घर के स्वामी को ही अपने घर के विपय मे पूरा ज्ञान न हो तो उस घर की कभी कल्याण नहीं हो सकता । मनष्य जीवन दुर्लभ है। अनेक योनियो में से गुजर कर मनष्य योनि प्राप्ठ होती हं 1 मनष्य को दिल श्रौर दिमाग मिला ह 1 उसका समुचित रूप से सदुपयोग करना मनुष्य का कर्तव्य हँ मनुप्य और पत्र में श्रिखिर क्या भेद है ? भेद यही है कि मनृप्य मस्तिष्क और हृदय रखता हें, उनका वृद्धिमानीपूर्वक उपयोग करता है, जवकि पशु विचारशीलता से वचित रहता है । वैसे तो प्‌ भी दो प्रकार के होते हें। एक सीग और पूछ वाले पशु और दूसरे बिना सीग और पूछ के। तो में तो यह कहने में कोई हिचक नही करता कि वे मनुष्य जिन्हें शकल-सूरत और शरीर तो इन्सान का मिला है, लेकिन जिनमे मनृष्यता नही है, वे मनृष्य के रूप से बिना सोग और पू छ के पशु ही हैँ । मनृष्य और मनृष्यता दो भिन्न-मिन्न वस्तुएं हे । म्यान व तलवार, फूल व सुगध, कुआ और पोती, ये सब अलग-अलग है । इसी प्रकार शरीर और आत्मा




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