दर्शन - विवेचना | Darshan Vivechna

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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४ दर्शन विवेचनं प्रभाव रहम है। दोनो ही मानव जीवन के किसी एक पक्ष से स्बंधित न होकर उसके सभी महत्त्वपूर्ण पक्षो को व्यापक रूप से प्रभावित करते रहे हैं, अत इस दृष्टि.से इन दोक मे पयप्ति समानता है । परत इस समानता के होते हुए भी जीवन और जगत के प्रति धर्म तथा दर्शन के दृष्टिकोण में आधारभत अनर है जिसे स्पष्ट रूप से जान लेना बहुत आवश्यक है। इसका कारण यह है कि धर्म और दर्शन के मल भेद को भली भाँति जान लेने पर हम इन दोनों के स्वरूप को अधिक अच्छी तरह समझ सकते हैं। धर्म, जीवम और जगठ के प्रति मनुष्य की एक विशेष प्रकार की अभिवृत्ति है। स्पष्टत' इसका अर्थ यही है कि धर्म में भावना अथवा अनुभूति का ही सर्वाधिक महत्व होता है। इसके विपरीत दर्शन जीवन तथा जयत्‌ को समझने का मनुष्य का सुव्यवस्थित, सगतिपूर्ण और बौद्धिक प्रयास है जिसका मूल आधार भावना न हो कर केवल तर्क है। भक्त या धर्मपरायण व्यक्ति केवल अपनी आस्था के फलस्वरूप अपने आराध्य विषय के प्रति अपने आप को पूर्ण रूप से समर्पित करता है, इस आत्म-समर्पण के लिए वह किसी प्रकार के तर्क अथवा प्रभाण की आवश्यकता का अनुभव नही करता। परत्‌ दाशनिक किसी भी सिद्धात, विश्वास या मान्यता को स्वीकार करने से ए उसके समर्थन मे पर्याप्त एव विश्वसनीय प्रमाणो की मोग करता है, क्योकि पसे प्रमाणो के अभावं मे बह अपना कोई निष्पक्ष निर्णय नही दे सकता। इस प्रकार स्पष्ट है कि धर्म के आधारभत तत्त्व अनुभूति'और आस्था हैं, जबकि दर्शन के मूल तत्त्व निष्पक्ष चिंतन एव तर्क हैं। जीवन और जगत्‌ के प्रति दृष्टिकोण में इस मल भेद के कारण ही भक्त तथा दार्शनिक के विचारो एव विश्वासो में आधारभूत अतर पाया जाता है। स्पष्टत इसका अर्थ यही है कि कोई भी ब्यक्ति अपने विचारों में सगति बनाए रखते हुए एक ही समय मे तथा एक ही साथ भक्त और दार्शनिक नहीं हो सकता। यदि वह सच्चा भक्त या आस्थावान धर्मप्रायण व्यक्ति है तो वह तर्को अथवा प्रमाणो की चिता किए बिना केवल अपनी श्रद्ध से प्रेरित होकर अपने उपास्य विषय के प्रति आत्म -समर्पण करेगा। इसके विपरीत यदि वह वास्तव मे दार्शनिक है तो दह आस्था ओर आराध्य विषय के अस्तित्व एव स्वरूप के समर्थन मे विश्वसनीय तथा पर्याप्त प्रमाणो की अनिवार्यतः खोज करेगा। ऐसी स्थिति मे यह निशचयपूर्वक कहा जा सकता है कि एक ही व्यक्ति एक ही समय मे-क्छ्ा एक ही साथ भक्त ओर दार्शनिक के कार्य नही कर सकता, क्योंकि इन दोनो के कमयो म आधारभूत अतर है ¦ इसी कारण बदि कोई व्यक्ति छकही साथ भवत और दर्शनिक होने का दावा करता है ले उसके इस दावे को गक्तिसगत नहीं माना जा सकता। वस्तुत धर्म तथा दर्शन इन दोनो का दीर्घकाश्षीन इतिहास इसी नथ्य की पष्टि करता हैं कि कोई भी व्यक्ति एक ही साथ सन्या भकन सौर सच्चा दा्भनिक नही हो सकता। इस प्रकार निष्कर्ष के रूप मे हम यह कह सकते हैं कि धर्म और दर्शन दोनो सानव-जीवन के बहुत महत्त्वएर्ण पक्ष होते हुए भी एक दूसरे से मुलव सिन्‍्न हैं।




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