उपदेशछाया और आत्मसिद्धि | Updeshachhaya Or Aatmsiddhi

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Updeshachhaya Or Aatmsiddhi by पं. जगदीशचन्द्र शास्त्री - Pt. Jagdish Chandra Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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६४३ ] उपदेश-छाया २. सददत्तियोंके उत्पन्न होनेके लिये जो जो कारण-साधन---बत्ताये होते हैं, उन्हें न करनेको ज्ञानी कमी कहते ही नहीं । जैसे रात्रिमें भोजन करना हिंसाका कारण मात्म होता है, इसलिये ज्ञानी कभी भी आज्ञा नहीं करते कि तू रात्रिमि भोजन कर । परन्तु जिस जिस अहंभावसे आचरण किया हो, -और रात्रिमोजनसे ही अथवा ५ इस अमुकसे ही मोक्ष होगी, अथवा इसमें ही मोक्ष है ' ऐसा दुराग्रहस मान्य किया हो, तो वैसे दुराम्रहको छुड़ानेके लिये ज्ञानी-पुरुष कहते ६ कि इसे छोड़ दे; ज्ञानी-पुरुषोंकी आज्ञासे वैसा ( रात्रिमोजन-त्याग आदि ) कर, ” और वैसा करेगा तो कल्याण हौ जायगा | अनादि काठ्से दिन्मे ओर रातर्मे मोनन किया दे, परन्तु जीवको मोक्ष हुईं नहीं ! इस कालमें आराधकताके कारण घटते जाते हैं, और विराधकताके लक्षण बढ़ते जाते हैं। केीस्वामी व्डे ये, ओर पार््छनाथ स्वामीके शिष्य थे, तो भी उन्होने पॉच महात्रत स्वीकार किये थे। केशीसवामी और गोतमस्वामी महाविचारवान थे, परन्तु केशीस्वामीने यह नहीं कहा कि में दीक्षाम बड़ा हूँ, इसालिये तुम मेरेसे चारित्र ग्रहण करो ” | विचारवान और सरल जीवको, जिसे तुरत ही कल्याणयुक्त हो जाना है, इस प्रकारकी वातका आग्रह होता नहीं । कोई साधु जिसने अन्नान-अवस्थापूर्वक आचार्यपनेसे उपदेदा किया हो, और पौछेसे उसे ज्ञानी-पुरुषका समागम होनेपर, वह ज्ञानी-पुरुष यदि साधुको आज्ञा करे कि जिस स्थानम तूने आचार्य- पनेसे उपदेश किया हो, वहाँ जाकर सबसे पीछे एक कोनेमें बैठकर सब छोगोसि एेसा कह कि “भने अज्ञानमावसे उपदेश दिया है, इसलिये तुम छोग भूल खाना नहीं; तो साघधुको उस तरह किये बिना छुटकारा नहीं है| यदि वह साधु यह कहे कि : मेरेसे ऐसा नहीं हो सकता, इसके वदले यदि आप कहो तो में पहाड़के ऊपरसे गिर जाऊँ, अथवा अन्य जो कुछ कहो सो करूँ, परन्तु वहा तो में नहीं जा सकता “---तो ज्ञानी कहता है कि “कदाचित्‌ तू छाख बार भी पर्वतके ऊपरसे गिर जाय तो भी वह किसी कामका नहीं है | यहाँ तो यदि थेसा करेगा तो ही मोक्षकी प्राप्ति होगी | वैसा किये विना मोक्ष नहीं है | इसलिये यदि तू जाकर क्षमा माँगे तो ही तेरा कल्याण हो सकता है ? | गौतमस्वामी चीर ज्ञानके धारक थे । आनन्द श्रावक उनके पास गया । आनन्द श्रावकने कहा फ ९ मुझे ज्ञान उत्पन्न हो गया है ' | उत्तरमें गौतमस्वामीने कद्दा कि “ नहीं, नहीं, इतना सब हो नहीं सकता; इसलिये तुम क्षमापना छो ” | उस समय आनन्द श्रावकने विचार किया ये मेरे गुरु हैं, संमव है, इस समय ये भूछ करते हों, तो भी “ आप भूछ करते हो ?, यह कद्दना योग्य नहीं | ये गुरु हैं, इसलिये इनसे शान्तिसे ही वोलना ठीक है | यह सोचकर आनन्द श्रावकने कहा कि महाराज ! सद्रूतचनका मिन्छामि दुककंड ” अथवा असद्भूतवचनका “ मिच्छामि दुक्कड › £ गौतमने कहा कि असद्भूतवचनका ही “ मिच्छामि दुकड ” होता है। इसपर आनन्द श्रावकने कहा कि ° महाराज | भँ ‹ मिच्छामि दुकडं ” लेने योग्य नहीं हूँ ” | इतनेमें गौतमस्वामी वहोंप्ति चले गये और उन्होंने जाकर महावीरखामीस पूँछा । यद्यपि गौतमस्वामी स्वयं उसका समाधान कर सकते थे, परल्तु गुरुके मौजूद रहते हुए वैसा करना ठीक नहीं, इस कारण उन्होंने महावरिस्थामकि पास जाकर यह २




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