गुप्त जी की काव्य धारा | Gupt Ji Ki Kavya Dhara
श्रेणी : काव्य / Poetry
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
11 MB
कुल पष्ठ :
339
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about गिरिजादत्त शुक्ल 'गिरीश' - Girijadatt Shukl 'Girish'
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)गुसजी को काव्य धरा २७
बैठा हूँ में भमण्ड साधुता घारण कर के।
झपने मिथ्या मस्त नाम को नामन् चरके)
कल्लुषित केसे शुद्ध सलिल को आज करूँ मैं ।
अनुज, मुझे: रिपुनरक्त चाहिए জুন मर्>ेँमें।
উহু अपने जड़ीभूत जीवन की लज्जा |
उठों इसी क्षण शूर करो सेना की सज्जा
|
८
वशिष्ठ मे मी समाज सेवा ही की आशा साकेत' में श्रीराम-
दी है ++
“द्ेवकार्य्य हों. और उदिव आदर्श হী।
उचित न्ष फिर सेक कोभ खश हयो)
मुनि-रतेक सम करो विपिन मे वाघ तुम !
হী বদ ক विश्च और सब आस तुम)
हरो भूमि का भार साग्य से लम्य ठम!
करो व्ययं समं वन्यचरों को सम्य तुम}
रामचन्द्र जी की वाणी द्वारा कवि ने अपना समाज-्सेवा
नि व्यक्त किया है :--
“ন্ট जन बन में हैं बने ऋत्ष बानर से।
मैं दूँगा अब आर्यत्व उन्हें निज कर से।
चल दण्डक वन मँ शीघ्र निवास करमां)
विज तपोधनो के विन्न विशेष दगा ।
उच्चारित हती चरौ वेद की वाणी ।
गजि भिरिकानन-सिन्धु-पार कल्याणी ।
अम्बर में पावन होम धूम घहरावे।
वसुधा का हरा, दुकूल भरा लहरावे।
तत्वों का चिंतन करें स्वस्थ हो झानी !
चिर्वि ध्यान म निरते रहै सब ध्यानी)
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