गुप्त जी की काव्य धारा | Gupt Ji Ki Kavya Dhara

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Book Image : गुप्त जी की काव्य धारा  - Gupt Ji Ki Kavya Dhara

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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गुसजी को काव्य धरा २७ बैठा हूँ में भमण्ड साधुता घारण कर के। झपने मिथ्या मस्त नाम को नामन्‌ चरके) कल्लुषित केसे शुद्ध सलिल को आज करूँ मैं । अनुज, मुझे: रिपुनरक्त चाहिए জুন मर्>ेँमें। উহু अपने जड़ीभूत जीवन की लज्जा | उठों इसी क्षण शूर करो सेना की सज्जा | ८ वशिष्ठ मे मी समाज सेवा ही की आशा साकेत' में श्रीराम- दी है ++ “द्ेवकार्य्य हों. और उदिव आदर्श হী। उचित न्ष फिर सेक कोभ खश हयो) मुनि-रतेक सम करो विपिन मे वाघ तुम ! হী বদ ক विश्च और सब आस तुम) हरो भूमि का भार साग्य से लम्य ठम! करो व्ययं समं वन्यचरों को सम्य तुम} रामचन्द्र जी की वाणी द्वारा कवि ने अपना समाज-्सेवा नि व्यक्त किया है :-- “ন্ট जन बन में हैं बने ऋत्ष बानर से। मैं दूँगा अब आर्यत्व उन्हें निज कर से। चल दण्डक वन मँ शीघ्र निवास करमां) विज तपोधनो के विन्न विशेष दगा । उच्चारित हती चरौ वेद की वाणी । गजि भिरिकानन-सिन्धु-पार कल्याणी । अम्बर में पावन होम धूम घहरावे। वसुधा का हरा, दुकूल भरा लहरावे। तत्वों का चिंतन करें स्वस्थ हो झानी ! चिर्वि ध्यान म निरते रहै सब ध्यानी)




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