घटखर्पर काव्य | Ghatkharper Kavyar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भ्‌ भिक 7 ৭. প্রন कति प्राय: दो हजार बर्ष गहले किसी कवि ने २९ झलोको का एक शुद्धारी काव्य लिखा था, जिसमे ६, २१, १२ লা छोड शेय सभी श्लोक वर्प विरहिणी के उरक्ति-स्वरूप हैं। &ठे श्लोक से कवि कहता है कि वर्पा-ऋत सने पर विरहिणी मेघो को देकर विकल हो गई और उत्तने मेघों से अपने प्रिप् के पास संदेश ले जाने के लिए निवेदन दिया । इक्कीसवे एलीक म परदेशी अयतस धर आ जाता हैं ओर विरहिणी क राग-रग के दिन फिरते हैं। बाईसवब में कवि को दर्पोक्ति है। इसमें कवि ते कहा हैं कि बदि कोई ক্ষতি मुझे यसक-रचना में पराजित कर दें, तो मै अपनी अनुरक्त प्रिया की सुरति- केलि की शपथ करके कहता हूँ कि स्वय प्यासा रहते हुए मैं उस विजयी কলি ক দিত घटखप र से पानी भरूँगा | इस काव्य का अतिम शब्द घटखर्पर है । इसी को पकड़ कर उस अज्ञात कंधि का एक कहिएत नाम 'धटखपंर' रख दिया यया और यहू काव्य 'घटखर्पर काव्य नाम से असिद्ध हुआ । घंटखर्पर का अथ है मिट्टी के घड़े का फूटन, फुटही गगरी, खपड़ी, छीन या ठीकरा । “खर्षर! से प्राकृत के 'खप्पर' मे परिवर्तित ट्रोता हुआ हिंदी शब्द बना खिपड़ा (ख़परा), पुन खपड़ा से बना खप्रैल यथा खपड़ल | खपड़ा घर छाने के काम आता ই | खपड़ा से स्त्लीलिंग बना 'खपड़ी' | पर 'खपड़ी' छोटा खपड़ा नही है, यह 'कोहा' है, जिसमे 'भड्भूजे' दाना भूजते है । मिट्टी के बड़ के नीचे का आधा गोल भाग भी खपडी है। कभी-कभी गगरी फूट जाने पर स्वतः खपड़ी बन जाती है, और कभी-कभी गगरी को फाडकर भी आवश्यकता वश खपड़ी बताई जाती है | इसमे औरतें महुआ, चना, मटर, दाल बनाने के लिए अरहर आदि घर पर ही भून था कहुल लेती है | कवि ते खप्ड़ी से पानी भरने की प्रतिज्ञा की है, यह कुछ रहस्यमय जान पड़ता है और लोगों ने कवि का नाभ्त धटखपेर था गगरी का फूटन या खपड़ी रख दिया, यह भी कम रहस्यमय नहीं है ।




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