बहानेबाजी | Bahanabaji

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Bahanabaji by भदन्त आनन्द कौसल्यायन - Bhadant Aanand Kausalyaayan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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में भी सूत कातता हूँ १७ पैसे का जो स्थान ओर अधिकार हो गया है, उसके रहते, बिना पैसे के श्रादमी का हाल चरखे की माल से भी बदतर है। ह, तो मै सूत क्यों कातता हर ? मेरा सीधा-सादा उत्तर है--क्ष्योंकि मैं कपड़ा पहनता हूँ। निवृत्ति प्रधान श्रमण-संस्कृति को मेरे सूत कातने पर कई आपत्तियाँ हैं।एक तो यह है कि श्रमण को किसी भी चीज के उत्पन्न करने का अधिकार नहीं है। मेरा उत्तर है कि सूत कातना किसी भी चीजू को उत्पन्न करना नहीं है। यद्द तो केवल पूनी को सूत के रूप में परिवर्तित करना है। सूत कातना “उत्पन्न! करना हो या “परिवर्तितः करना, उसके मूल में जो निषेधात्मक आपत्ति है उसका मूल कारण इतना ही है कि सभी प्रद्वत्तियों के मूल में संग्रह ओर परियग्रह है, ओर यह संग्रह ओर परिग्रह बढ़ते-बढते श्रमण के श्रमणत्व को नष्ट कर दे सकता है। श्रमण की जीविका का आधार है भिक्षा । जिस प्रकार वद खाने के लिए अन्न पेदा नही करता, किन्तु पका- पकाया दाल-भात द्वी भिक्षा रूप में अहण करता है, उसी प्रकार उसे सूत कातने आदि के प्रपंच में न पड़कर बना-बनाया वद्ध द्वी दान रूप भे ग्रहण करना चाहिए। हर व्यक्ति की कुछु-न-कुछ आवश्यकताएँ द्वोती है। श्रमण भी उस नियम का अपवाद नहीं। व्यक्ति, कोई भी दो, अपनी आवश्यकताओं को घटा-बढ़ा सकता है, किन्तु उन्हें समूल नष्ट नहीं कर सकता । व्यक्ति की कितनी आवश्यकताओं को उचित माना जाय, इसमें देश-काल ही नहीं, उस व्यक्ति का कार्य, आयु ओर स्वास्थ्य तक प्रमाण है । धार्मिक नियम ग्यक्ति को बाँध सकते हैं, उसे संयत नहीं बना सकते । व्यक्ति की आवश्यकताओं का सच्चा निशोयक उसका अपना विवेक दी है । अपनी आवश्यकता की पूर्ति के थोड़े अथवा बहुत साधनों को अपने पास रखने मात्र को संग्रह भले द्वी कहा जा सके, किन्तु उसे अनिवार्य रूप से परिग्रह नहीं कहा जा सकता । यदि ইল संग्रह मात्र को परिग्रह मानने लगें तो आदमी जितनाही दरिद्र हो उतना द्वी अपरिग्रही भी माना जाना चाहिए ।




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