मानस की रूसी भूमिका | Manasa Ki Rushi Bhumika
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
16 MB
कुल पष्ठ :
302
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)| १३ |
जो कह झूठ मसखरी जाना, ऋतियुव सोइ ग़ुतबंत बखाना।””
“जे अपकारीबार चिन्ह कर गौरव मान्य बहु ।”
इसी प्रकार कवितावली में कवि कहता हैँ कि पापियों की मनमानी
है और भ्रच्छे मनुष्य बुरे फल पा रहे हैं और ऐसा समय श्रा गया हूँ.
कि नीच उदार श्रौर सज्जन को गाली देते हें । सारा काम उल्ठा होः
रहा हं :-
“मांगे ঈ पावत प्रचारि पाती प्रचंड,
काल को करालता भले कौ होत पोचुहै।
বা
“बंबुर बहेरे को बनाय बाग लाइयत,
रूँघिबे को सोइ सुरतरु काटियतु है
गारी देत नीच हरिचंदहू दथीचि हू को,
आपने चना चबाई हाथ चाटियतु है ॥?#
इस प्रकार ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करते हुए तराक्नीकोवने
राजनीतिक उथल-पुथल और प्रशांति के साथ उस दूसरी গ্সহালি तथा
ग्रव्यवस्था को भी लक्षित किया है जो सामाजिक तथा सांस्कृतिक
थी भौर जो देश के अपने विशिष्ट स्वरूप की रक्षा के लिए कम
महत्त्वपूर्ण न थी । भारत की प्राचीन सामाजिक व्यवस्था उन नए
पंथों के सृजन से श्रस्तव्यस्त और शिथिल हो रही थी जो इस्लामी
संस्कृति के प्रभाव-स्वरूप उदभत हुए थे। वस्तुस्थिति का संक्षेप
बितु सारगभित कथन करते हुए लेखक का यह उदार मत युक्तियुक्त है
कि “हिंदू-समाज ने श्रपने को दो संकटों के बीच पाया, एक श्रोर
से प्रमषय-प्रत्याचार,......जो मुसलमान शासकों की औझोर से पाँच
शताब्दियों से श्रधिक धारा के रूप में प्रवाहित हो रहा था........ दूसरी
#% कवितावली -- सम्पादक पं ० विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, पृष्ठ २४६ !
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