रवीन्द्र साहित्य भाग-18 | Ravinder Sahitye Vol 18

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Ravinder Sahitye Vol 18 by धन्यकुमार जैन - Dhanyakumar Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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~ ५ तीन साथी : रविवार “ १७ कंडॐ छगली थी, धर सन्मे होता था य्व! वद जानतीहै रि किख तरह दिनपर दिन नेक मौनाद्‌ वदद जातीषहे। च्ियेकि प्रिममे जो मदिरा वही मेरे ठिए इन्वपिरेनन (भरणा) है । में कलाकार ठदरा। और वह ठहरी मेरी पाख्की हवा । उसके विना भेरी तूचिक्रा अटक जायगी बाढके टापू । भँ समभर जाना द्रं कि मेरे पास बेव्नेसे भोलाके हत्विग्डम एक नरह॒की छाल रक्री याग धवकरती रहती ह, डेनजर सिग्नल, ओर उसा तेज प्रवेण करता है मेरी नस-नसमे। इसमे मेरा अपराध न मान लेना, त्पसिनी ! सोचती होगी उसमे मेरा विछास है, नहीं जी नहीं, उसकी मु जररत है ।” «. “इसीते तुम्हे इतनी जरटरत है ऋ्ाइस्लर-याडोफी 17 “हु, में मानता हूं इस वातकी । नीलामें जवं गर्व जागता हैः तो उसकी मानकर वड जाती डे) ब्रियोके लिए इसीलिए तो जुटाने पटते हैँ इसने गहने-कपठे । हम॒लेग चाहते हैं ल्लियोंद्रा माधुयं और थे चाहती हैं पुत्पका ऐव्वर्यं/ उसीकी सुनहरछी पूणनापर उनके प्रक्राभका वकृग्राउण्ड है। प्रकृतिका यद पडयन्त्र है पुरुषोंको वडा वनानेक्रे लिए। सच है या नहीं बनाओ |” ष्टो सकनाहै स्च । प्र तर्कं इस वातका है कि पेव्वयै कहते किसे हं । क्राइस्लरकी गाडीको जो छोग ऐख्र्य कहती हैं, में तो कहंगी कि वे पुरुषकी छोटा बनानेकी तरफ खींचा करती हैं ।” अमीक उत्तेजित होकर वोर उठा, “माम हे, मालूम हे तुम जिसे ऐज्लये कहनी हो उसीके सर्वोच्च शिखरपर तुम मुझे पहुंचा सकती थीं। तुम्हारे भगवान हमारे वीचमें आ खडे हए |” असीकका हाथ छुडाकर विभाने झहा, “इस एक ही वातकी ठुम बार-बार मत कह्दो । में तो बरावर उल्टा ही उनती भाई हूँ । स्याद कलासार लिए गलेकी फांसी है 1 इन्सपिरेशनका दस घोंट ठेता है। तुम्हे अगर में चटा कर सक्‍ती सुझम अगर वह शक्ति होतो, तो---” अभीक्ने मीतरसे अपने सकस्स्रत हुए क्छ, कर उक्नीं क्या, स्यि हैं। मुमेयहीदुख दकि मेरे उस ऐव्वर्यकी तुमने पहचाना नहीं । अगर ` जान जानी) तो अपने धर्मेनरमेके सच बन्धनेको नोडकर मेरौ खतिनी दोन्र 19-2 [क । ष




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