दिव्यचक्षु | Divyachakshu

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Divyachakshu by रमणलाल वसंतलाल देसाई- Ramanlal Vasantlal Desai

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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1. प्रतिज्ञा स्वराज्यलाभप्रति पूरीतात्सने --श्रीमद्भागवत एक छोटे से खुले मैदानमे छोटा-सा भंडा फहरा रहा था । भंड के इदे-गिदं लगभग बीस युवक वृत्ताकार खड़े थे । उनके चेहरों पर अपूवं गांभीयं छाया था । सूर्योदय होने को ही था | कोमल मुखाकृति वाले उन युवकों के बीच एक तेजस्वी वयस्क अलग ही दिख रहे थे जिनके चेहरे पर चितन का ओज उन्हें माला के मनकों से उन युवकों के बीच मेरु का आसन दे रहा था। एक युवक ने मधुर कितु ओजमय स्वर में गाना आरंभ किया। गीत का प्रत्येक चरण शेष समूह हारा दोहराया जा रहा था: बीरो! युद्ध छिड़ गया है। उठो जागो । इस शांतिमय पावन संग्राम की बेला में केसरिया बाना धारण करके हे वीरो! उलो“ जागो । न तो हमें अस्त्र-शस्त्र टकराने हैं न ही शत्रुओं को मृत्युभय से डराना है शत्रुविहीन युद्ध में प्राण होम करने वीरो | उलो“ जागो ! | संसार में वेर का विष काफी फल गया है तलवारों ने नाच-ताच कर अगणित शीश धरती पर बिछा दिये हैं । वीरो! उलो जागो |




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