कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा | Karttikeyanupreksa

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Karttikeyanupreksa by आचार्य शुभचन्द्र - Aacharya Shubhachandra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ডু -- कात्तिकेयानुप्रेध्षा -- सम्मेलन हुआ था । इस सम्मेलनके सभापति डाक्टर विटसेन नियुक्त हुए थे। भिन्न भिन्न जातियोके दशेकोर्भे से दस सज्जनोंकी एक समिति सगठित की गई। इन सञ्जनने दस मषाभके छ छ शब्दोके दस वाक्य बना कर रख लिए और अक़मसे बारी बारीसे युना दिए। थोडेहों समय बाद इस हिन्दु युवकने दर्शकोके देखते देखते स्मृतिके बलसे उन सब वाक्योंकों क्रम पूर्वक सुना दिया । युवककी इस शाको देखकर उपस्थित मंडली बहुत ही प्रसन्न हुई। इस युवाकी स्पशन इन्द्रिय और मन इन्द्रिय अलौकिक थी। इस परीक्षा के लिये अन्य अभ्य प्रकारकी कोई बारह जिल्दे इसे बतलाई गईं और उन सबके नाम सुना दिए गए । इसके बाद इसकी आँखोपर पट्टी बाँध कर इसके हाथोंपर जो जो पुस्तकं रकखी गई, उन्हें हाथोमे टटोलकर एस युवकने सब प्रस्तकोके नाम बता दिए । डॉ. पिटसंनने इस युवककी इस प्रकार आश्र्थपूणं स्मरण शक्ति त्री मानमिक शक्तिका विकास देखकर बहुत बहुत धन्यवाद दिया, और समाजकी ओरसे सुबर्ण - पदक और 'माज्षात्‌ सरस्वती की पदवो प्रदान की गई। उम्र समय चाल्स सारजट बम्बई हाईकोटके चीफ जस्टिस थ | वे श्रीमदजी की इस शक्ति से बहुत ही प्रभावित हुए | सुना जाता है कि सारजट महोदयने श्रीमद्जी से इग्लेड चलनेका आग्रह किया था, किन्तु वे कौतिसे दूर रहनेके कारण चाह्म महाशयकी इच्छाके अनुकूल न हुए अर्थात्‌ एग्लेड न गए।! इमके अतिरिक्त बम्बई समाचार आदि अखवारोम भी इनके शतावधानके समान्तार प्रकाशित हुए थ। बादमे, जतावधानके प्रयोगोकोी आत्मचिन्तनमे अन्तरायरूप मास कर उनका करना बन्द कर दिया था। उससे सहजमे टी अनुमान किया जा सकता है कि वे कीति आदिये कितने तिरपेक्ष थ। उनके जीवनम एद णद पर নম্মী ঘালিমলা प्रत्यक्ष दिखाई देती थी । त्रे २१ व्ष की उश्नमे व्यापारा ववाणियामेि वम्र आगु । कहा सेट रउणंकर जगजीवनदामकी दुकान में भागीदार रहकर जवाहरातका घन्धा करते रह । व्यापारमे अव्यस्त कृशन थ! ज्ञानयोग तथा कर्म॑योगका इनमे यथार्थ समन्वय देखा जाता था। व्यापार करते हुए भी श्रीमदूजी का लक्ष्य अत्माकी ही भोर विशेष था। इनके ही कारण उस समय मोतियों के बाजारमे श्रोयुत रेवाशकऊर जगजीवनदासकी पेढ़ी नामी पेढीयोमें एक गिनी जाती थी। स्वयं श्रीमदजीके मागोदार श्रीयुत्‌ु माणिकलाल घेलाभाईको इनकी व्यवहार कुशलताके लिए अपूर्व सन्‍्मान था । उन्होने अपने एक वक्तव्य मे कहा था कि--श्रीमद्‌ राजचन्द्रके साथ मेरा लगभग १४५ वर्ष तक परिचय रहो, और उसमे सात आठ वर्ष तो मेरा उनके साथ अत्यन्त परिचय रहा था। लोगोमें भति परिचयसे परस्परका महत्त्व कम होजाता है, परन्तु मै कहता हूँ कि उनकी दशा ऐसी भात्ममय थी कि उनके प्रति मेरा श्रद्धा भाव दिन प्रतिदिन बढता ही गया। व्यापारमें कठिनाइयाँ आती थी, उनके सामने श्रीमदु जी एक अडोल पव॑तके समान टिके रहते थे। मैने उन्हे जड बस्तुओकी चिन्तासे चिन्तातुर नहीं देखा । वे हमेशा शान्तर और गम्भीर रहते थे। किसी विषय मे मतभेद होने पर भी हुंदयमे वैमनस्थ नहीं था सर्देव पूवं सा व्यवहार करने थ | श्रीमद्‌ जी व्यापारमे जं॑से निष्णात थे उससे अत्यन्त अधिक आत्मतत्त्वमे निष्णात थे। उनकी अन्तरात्मा में भौतिक पदार्थोकों महत्ता नहीं थी, वे जानते थे, घन पाथिव शरीर का साधन है, परलोक अनुयायी तथा भत्माको शाश्वत ज्ञान्तिप्रदात करने वाला नहीं है। व्यापार करते हुए भी उनकी अन्तरात्मामे वेराग्यगगा का अखण्ड प्रवाह निरन्तर वहता रहता था। मनुष्य भवके एक एक समयको वे अमूल्य समझते थे । व्यापार से अवकाश मिलते ही वे कोई आपूर्व आत्मविचारणामे लीत हो जाते थे । निवृत्तिकी पूर्ण भावना होने पर मी प्र्वोदय कुछ ऐसा विचित्र था जिमसे उनको बाह्य उपाधिमे रहना पडा । श्रीमद्‌ जी जवाहरातके साथ साथ मोतियोका भी व्यापार करते थे । ग्यापारी समाजमे ये अध्यन्त विश्वास पात्र समझे जाते थे। उस समय एक आरब अपने माईके साथ रहकर बम्बईसे मोतियो की आढ़त का धंधा करता था छोटे भाई के मनमे आया कि आज मै मी वट भाईके समान व्यापार करू । परदेश से आया हुआ माल साथ में लेकर आरव बेचने निक्त पड़ा दलानने भीमदरजौका परिचय कराया) श्रीमदूजी




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