ज्ञानार्णव | Gyananrava

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Gyananrava by आचार्य शुभचन्द्र - Aacharya Shubhachandra

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about आचार्य शुभचन्द्र - Aacharya Shubhachandra

Add Infomation AboutAacharya Shubhachandra

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
११ भी नहीं हुए । अन्तमें राजकुमार शुमचन्द्र और भर्तृहरि दोनोंने मुंजके सम्मुख हाथ जोड़कर कहा, तात ! यदि आशा हो, ते हम लोग इस लोहदंडकी उखाढ़ें । इस पर राजाने ।विहेंसकर कहा, बेटो ! तुम लोगोंका यह काम नहीं है । अभी तुम बालक हो, इसलिये अखाड़ेमें जाकर अपनी जोड़ीके लड़कोंसें कुइती खेलों । बालकों ने कहा, महाराज | सिंहनीके बच्चोंको हाथीका मस्तक विदारण करना कौन सिखलाता हे १ हम लोग आपके पुत्र हैं । इस दंडको हाथसे उखाडना क्या बड़ी बात है । आप आजा देंवे, तो बिना हाथ लगाये इसको निकालके फेंक सकते हैं । यदि ऐसा न कर सकें, तो आप हमें क्षत्रियपुत्र नहीं कहना । इस प्रार्थनापर भी मुंजने कुछ ध्यान न दिया ओर उन्हें समझाकर टालना वाहा, परन्त॒ बालहठ बुरा होता है; अन्तमें आज्ञा देनी ही पड़ी । तब कुमारोंने चोर्टीके बालोंका फंदा छगाकर देखते देखते एक झटकेमें लोहदंडकों निकालके फेंक दिया । चारों ओरसे धन्य धन्यकी ध्वनि गूंज उठी । तेली निर्मद्‌ होकर अपनी राह लग गया । राजवृष्णा बहुत बुरी होती है । बढ़े २ विद्वान इसके फंदेमें पड़कर अनर्थ कर बेठते हैं । उस दिन राजा मुंजकों बालकोंका यह कोतुक देखकर विचार हुआ, ओह ! इन बालकोंके बलका कुछ ठिकाना है ? इनके जीते जी क्या मेरे राज्यसिंहासनकी कुशलता हो सकती ই? अवश्य ही जब ये रोग इच्छा करेंगे, मुझे पिंहासनसे च्युत करनेंमे देरन लगावेंगे । यदि इस समय इनका निर्मैलन न किया जावेगा, तो राजनीतिकी बड़ी भारी भूल होगी । विषवृक्षके अंकुरकों ही नष्टकर डालना बुद्धिमानी है । तत्काल ही मंत्रीको बुलाकर मुंजने अपना विचार फ्राट किया और कहा, शीघ्र ही इनको परलोकका मार्ग दिखानेका प्रयत्न करों । मंत्री सन्न हो गया । छातीपर पत्थर रखकर उसने मुंजकों बहुत समझाया कि, यह अनर्थ न कीजिये । राजकुमारोंके द्वारा ऐसी शंका करनेके लिये कोई कारण नहीं दीखता । परन्तु मुंजने एक न सुनी । कहा, राजनीतितत्त्वमें अभी तक तुम अपरिपकव ही हो । इसमें तुम कुछ विचाराविचार मत करों, ओर हमारी आज्ञाका पालन करो। मंत्री हृद्यमें दुःखी हो “जो आज्ञा” कहकर चला गया । पश्चात्‌ उसने राजाशाकी पालना करनेकी बहुत चेष्टा की, परन्तु उसका हृदय तत्पर नहीं हुआ । एकान्तमें राजपुत्रोंकों बुलाकर उसने मुँजके भये- कर विचारको प्रगट कर दिया ओर उज्जयनी छोड़कर भाग जानकी सम्मति दी । तब राजकुमारोंने अपने पिता सिंहलके निकट मुंजकी गुप्तमंत्रणा प्रणगकर पूछा, हम लोगोंका अब क्या कर्तव्य है, यह आपको स्थिर करना चाहिये । मुंजक पामर विचारको सुनकर सिंहलका कोध उबर उढा । उन्होंने अधीर होके कहा, यदि मुंज ऐसा नीच है, तो तुम क्यों चप बैठे हो { जाओ ओर इसके पहले ही कि वह अपने षढ़यंत्रकों कार्यमं परिणत करें, तुम उसे यमलोकका पहुंचा दो | क्योंकि राजनीतिमें “ हनिये ताहि हने जो आपू ” ऐसा कहा हैं। इसपर तत्त्तविशारद्‌ उदार-इदय राज- कुमारोंने कहा, तात ! यह कृत्य हमलोगोंके करने योग्य; सी है । बे हमारे आपके समान ही पूज्य हैं । हम उन्हें मारकर अपयशकी गठड़ी अपने প্রি नहीं रखना चाहते । ओर कितनेसे जीवनके लिये यह कृत्य करें ! उन्हें उनके पापोंका बंदुढः श्वय मिल जावेगा। हम उसका प्रयत्न करके आपको दोषी क्‍यों बनावें ? वे शायद्‌ अंपनेकों आर धृमझते हैं, परन्तु हम इस शरीरको क्षणत्थायी माननेवाले हैं । इसलिये अब हम सन तः होकर इत रारीरते कुछ आत्म- कृत्य करना चाहते हे । संसारम को$ किषीका नरी पतक २ मतलबके सगे हैं। यह बुद्धि पान पुरुषोंके सेवन करने योग्य नहीं हे । इत्यादिः करके दोनों भाई वहासि चल दिये । पिता ज़ेहाई नेत्रोंसे उन्हें देखते ही रह गये। + -




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now