गृहस्थ धर्म भाग - 3 | Grihasth Dharm Bhag - 3
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
10 MB
कुल पष्ठ :
286
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)अध्याय पहला. । [ই
और दशेनावरणी फमके क्षयोपशमसे, कपने चित्तका बिलकुछ
'पागलपन न होना सोहनीय कमके मंद उद्यसे, अपनेमे साधारण
शक्ति होना अन्तरायके क्षयोपशमसे, शरीर और उप्तके अंग, हाथ,
पेर आदि बनाना नामकर्मके उदयसे, ऊंच व नीच ভ্রম জন্ম
पाना गोत्रकमेके खदयसे, अच्छे च बुरे देश तथा छुट्ुबियाके
मध्यमे पैदा होना वेदनीय कमके उदयसे-रेखा सघ सामान प्राप्त
हुआ दै । |
इन सवै सामग्रियोको पाकर जवतक हम इनसे तरह
तरका काम लेनेका उदयम न करे तवतक कदापि संभव नहीं है
` कि हम दुनियांका कोई काम कर सर्के । य्हातक् कि यदि हम
अपने यहम ग्रास न रख तो अपना पेट कदापि नहीं भर सक्ते
ददं ओर न हम एरुष कंहटाकर अपना पुरुषपना प्रगट कर सकते
द| जसे उद्यमक्रे विना िस्पी ओर उसका सखन सामान वेकाम
द्योता दै वेसे ही यह पुरुष ओर उसके सुंहके आगे रक्खो हुई
स्वै सामभी यदि वह उनसे काम न ले तो बेकाम होगी ।
उद्यम करना मनुष्यका कतव्य दै। इसी बातको ध्यानमें रख-
कर प्राचीन आचार्योने चार तरहके पुरुषाथ नियत किये हैं-धर्म,
अथे, काम, और मोक्ष । हसारा सुख्य प्रयोजन धर्मरूप पुरुषार्थसे
दै, जो किं सवे अन्य पुरुषार्थोका बीज दै। उसी प्रथम पुरुषार्थमें
छीन दोना हमारे परम कल्याणका कारण है।
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