गृहस्थ धर्म भाग - 3 | Grihasth Dharm Bhag - 3

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Grihasth Dharm Bhag - 3 by ब्रह्मचारी शीतल प्रसाद - Brahmachari Shital Prasad

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अध्याय पहला. । [ই और दशेनावरणी फमके क्षयोपशमसे, कपने चित्तका बिलकुछ 'पागलपन न होना सोहनीय कमके मंद उद्यसे, अपनेमे साधारण शक्ति होना अन्तरायके क्षयोपशमसे, शरीर और उप्तके अंग, हाथ, पेर आदि बनाना नामकर्मके उदयसे, ऊंच व नीच ভ্রম জন্ম पाना गोत्रकमेके खदयसे, अच्छे च बुरे देश तथा छुट्ुबियाके मध्यमे पैदा होना वेदनीय कमके उदयसे-रेखा सघ सामान प्राप्त हुआ दै । | इन सवै सामग्रियोको पाकर जवतक हम इनसे तरह तरका काम लेनेका उदयम न करे तवतक कदापि संभव नहीं है ` कि हम दुनियांका कोई काम कर सर्के । य्हातक् कि यदि हम अपने यहम ग्रास न रख तो अपना पेट कदापि नहीं भर सक्ते ददं ओर न हम एरुष कंहटाकर अपना पुरुषपना प्रगट कर सकते द| जसे उद्यमक्रे विना िस्पी ओर उसका सखन सामान वेकाम द्योता दै वेसे ही यह पुरुष ओर उसके सुंहके आगे रक्खो हुई स्वै सामभी यदि वह उनसे काम न ले तो बेकाम होगी । उद्यम करना मनुष्यका कतव्य दै। इसी बातको ध्यानमें रख- कर प्राचीन आचार्योने चार तरहके पुरुषाथ नियत किये हैं-धर्म, अथे, काम, और मोक्ष । हसारा सुख्य प्रयोजन धर्मरूप पुरुषार्थसे दै, जो किं सवे अन्य पुरुषार्थोका बीज दै। उसी प्रथम पुरुषार्थमें छीन दोना हमारे परम कल्याणका कारण है।




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