धर्मशर्माभ्युदय | Dharamsharmabhyuday

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Dharamsharmabhyuday by पं पन्नालाल जैन साहित्याचार्य - Pt. Pannalal Jain Sahityachary

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१६ वर्मशमम्दुदय उभय कवि रेष्ठ होता है । परन्तु यायावरीय इस मतसे सहमत नही है । उनका कहना है कि “स्वविषये सर्वो गरीयान्‌ । नहि राजदसश्वन्द्रिका- पानाय प्रभवति; नापि चकोरोऽद्भ्य क्षीरोद्धरणाय । यच्छाखकवि काव्ये रससम्पद्‌ विच्छिनत्ति, यत्काव्यकवि शास्त्रे तकंकरफंशमप्यथंसुक्तिवैचिन्येण श्लथयति । उभयकविस्तूमयोरपि वरीयान्‌ यचयुमयन्न पर प्रवीण स्यात्‌” अपने-अपने बिपयमे सभी श्रेष्ठ हे। क्योकि राजहुत चन्द्रिकाका पान नही केर सकता श्लौर चकोर पानीसे दूधको अलग नही कर सकता । दोनोमे भिन्न भिन्न दो प्रकारकी शक्ति है जिससे वे दोनो श्रेष्ठ है। शास्त्र कवि काव्यमे रसका निषपन्द देता है ओर काव्य कवि तफोसे कठिन अर्थको अपनी सरस उक्तियोकी विचित्रतासे मृदुल बना देता है । यो, उभय कवि दोनोमे श्रवश्य श्रेष्ठ है यदि वह दोनो विपयोमे अत्यन्त चतुर हो । कान्यका प्रयोजन-- इस बिपयका जितना अच्छा सग्रह मम्मठ भट्टने अपने “काव्य-प्रकाश'मे किया है उतना शायद किसी दूसरेने नहीं किया है । काम्य यशसेऽथेछृते व्यवहारविदे रिवेतरक्न तये । सद्य परनिघ्चुतये कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे ।।> काव्य यशके लिए, व्यावहारिक ज्ञानके लिए, अमगल दूर करनेके लिए, तात्कालिक आनन्दके लिए और कान्तासम्मिततया-ल्रीके समान मधुर आलापसे उपदश देनेके लिए--सत्पथ पर लानेके लिए, निर्मित किया जाता है---स्वा जाता है। आज, काव्य-रचनाके कारण ही कालि- दासकी सुन्दर कीर्ति सपत जगह छाई हुई है। राजा भोज उत्तम काव्यकी रचनासे ही प्रसन्न होकर कवियोफे लिए; 'प्रत्यक्षर लक्ष ढदो! एक-एक अच्षर पर एफ एक लास रुपये दे देता था। काव्यके पढनेसे ही देशकी प्राचीन अर्वाचीन सम्यताके व्यवहारका पता चलता है। काव्यरचनकि




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