धर्माशर्माभ्युदय | Dharmasharmabhyuday

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Dharmasharmabhyuday  by पं पन्नालाल जैन साहित्याचार्य - Pt. Pannalal Jain Sahityachary

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१४ धर्मशमम्युदथ ग्रन्थेमिं कई तरइसे काव्यस्वरूपका वणन किया है } एक दूखरेने दृसरेकी मान्यताओ्रोंका खण्डन कर अपनी-अपनी मान्यताश्रोंको पुष्ट किया है । यदि विचारक दृष्टिसे देखा जाय तो किसीकी मान्यताए श्रसंगत नहीं हैं क्योंकि सथका उद्‌ श्य चमत्कार पैदा करनेवाले शब्दार्थमें ही केन्द्रित है। सिफ उस चमत्कारका कोई रससे, कोई श्रलंकारसे, कोई ध्वनिसे, कोर व्यज्जनासे और कोई विचित्र उक्तियोसे श्रमिव्यञ्जित करना चाहते है । काव्यके कारण-- “ননী जुखी प्रतिमा “बहुज्ञता व्युष्पत्तिः' सब श्रोर सवर शास्मि प्रवृत्त होनेवाली स्वाभाविक बुद्धि प्रतिमा श्रोर श्रनेक शासख्रोके श्र्ययनसे उक्छन्न हुई बुद्धि व्युत्पत्ति कहलातौ है । कायक उत्पत्तिमे यही दो मुल्य कारण है । शरतिभा-ग्युष्पच्यो प्रतिभा श्रेयसी इत्यानन्दः--श्रानन्द श्राचार्थ का मत है कि प्रतिभा और व्युत्पत्तिमें प्रतिमा ही श्रेष्ठ है क्योकि वह कबिके अशानसे उत्पन्न हुए दोषकों हटा देती है और “ब्युत्पत्तिः भेधसी' इति मङ्गल.+- मङ्गलका मत हे किव्युत्यत्तिही श्रेष्ठ है क्योंकि वह कबेके श्रशक्ति कृत दाषको छिपा देतो है । 'प्रतिसा-ब्युत्पत्ती मिथः समवेते भ्रेयस्यौ' इति यायावरीयः --यायावरीयका मते है कि प्रतिभा ग्रौर व्युत्तत्ति दोनो मिलकर श्रेष्ठ है क्योकि काव्यमे सौन्दर्य इन दोनो कारणोसे ही आ खक्रत हे । इस विष्रयमे राजशेखरने अ्रफ्नी काच्य-मीमासामें क्‍या ही श्रच्छा लिखा है--'न खलु ज्ञावण्यलामादत रूपसम्पतत, ऋते रूप- सम्पदो वा कावण्यलन्विमंहते सौन्दर्याय'- लाप एयके प्रास हुए बिना रूप सम्बत्ति नहीं हो सक्ती श्रौर न रूप-सम्पत्तिके यना लाबरुय्की प्रास सौन्दर्यके लिए हो सकती है। कचि--- 'परतिमादयुत्पत्तिमोश्च कवि. कविरिष्युर्यते'- प्रतिमा श्रौर ब्युत्पत्त




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