जैन धर्म मीमांसा भाग - 3 | Jain Dharm - Meemansa Bhag - 3

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Jain Dharm - Meemansa Bhag - 3 by दरबारीलाल सत्यभक्त - Darbarilal Satyabhakt

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पा. का रूप ] (“ ९ प्रथम अध्याय में कल्याणमार्ग की मीमांसो की गई है और : मनुष्या के अधिकतम सुखबाली नीति का संशोधित रूप 1 गया € | वहां पर सुखकी प्राप्ति के लिये दो बातें आवश्यक এ গাই ह- (१) ससार म सुख की वद्धि करन [काम] और ১১ তা সণ ন। कला सीखना [मोक्ष] ! दुःख के जितने साधन £ [कय जा प उनको दूर करने का ओर सुख के जितने साधन = जा सकं उनको जुटाने का प्रयत्न करना तथा.अवरिष्ट दुःख ॐ समभव स सहन करके अपने को सदा सुखी मानना, सुखका वास्तविक उपाय है | ' स्स श्रयत्न का बहुभाग मानसिक भावना ` पर অনন্তম্বিন ই, ভর প साधन दूर करने का और सुख के साधन जटाने का ५ कतना भा प्रयत्न क्योन करे, फिर भा कुछ त्रटि रह जायगी जिसे संतोष से पूरा करना पड़ेगा | जितना कुछ मिलता < उसका अपेक्षा न मिलने का क्षेत्र बहुत ज्यादह है, इसलिये संतोषादि से बहुत अधिक काम উন व | जरूरत है । इसलिये कहना चाहिये कि खुखका मार्ग आत्माकी भावना पर है आधेक अवरम्बित है । ऊपर जो बाते बताई गईं हैं. उनमें इसरो बात (सुखी उन গা লতা) तो परिणामो परह লিং ह॒ ओर्‌ पहिली चत का भ साक्षात्‌ सम्बन्ध परिणाओों से है | क्याकि दु:ख লঘা ই £' पक तरह का परिणाम ही है| प्रति शछ साधनों के रहने पर भी जर्‌ हम वचनी को पैदा नहीं হাণ ও तो हमें दुःख न होगा.। 1/6 कूर साधन बेचैनी पैदा करते है इसलिये उनको दूर करने का डपाय सोचा जाता है | अगर हम उन पर विजय प्रप्त कर सकेतो




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