जैन धर्म मीमांसा भाग - 3 | Jain Dharm - Meemansa Bhag - 3
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
14 MB
कुल पष्ठ :
378
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)पा. का रूप ] (“ ९
प्रथम अध्याय में कल्याणमार्ग की मीमांसो की गई है और
: मनुष्या के अधिकतम सुखबाली नीति का संशोधित रूप
1 गया € | वहां पर सुखकी प्राप्ति के लिये दो बातें आवश्यक
এ গাই ह- (१) ससार म सुख की वद्धि करन [काम] और
১১ তা সণ ন। कला सीखना [मोक्ष] ! दुःख के जितने साधन
£ [कय जा प उनको दूर करने का ओर सुख के जितने साधन
= जा सकं उनको जुटाने का प्रयत्न करना तथा.अवरिष्ट दुःख
ॐ समभव स सहन करके अपने को सदा सुखी मानना, सुखका
वास्तविक उपाय है | '
स्स श्रयत्न का बहुभाग मानसिक भावना ` पर অনন্তম্বিন
ই, ভর প साधन दूर करने का और सुख के साधन जटाने का
५ कतना भा प्रयत्न क्योन करे, फिर भा कुछ त्रटि रह
जायगी जिसे संतोष से पूरा करना पड़ेगा | जितना कुछ मिलता
< उसका अपेक्षा न मिलने का क्षेत्र बहुत ज्यादह है, इसलिये
संतोषादि से बहुत अधिक काम উন व | जरूरत है । इसलिये कहना
चाहिये कि खुखका मार्ग आत्माकी भावना पर है आधेक अवरम्बित है ।
ऊपर जो बाते बताई गईं हैं. उनमें इसरो बात (सुखी
उन গা লতা) तो परिणामो परह লিং ह॒ ओर् पहिली
चत का भ साक्षात् सम्बन्ध परिणाओों से है | क्याकि दु:ख লঘা ই £'
पक तरह का परिणाम ही है| प्रति शछ साधनों के रहने पर भी
जर् हम वचनी को पैदा नहीं হাণ ও तो हमें दुःख न होगा.।
1/6 कूर साधन बेचैनी पैदा करते है इसलिये उनको दूर करने का
डपाय सोचा जाता है | अगर हम उन पर विजय प्रप्त कर सकेतो
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