अमिट रेखाएं | Amit Rekhaye

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Amit Rekhaye by देवेन्द्र मुनि शास्त्री - Devendra Muni Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आचायं स्थूलभद्र भगवान महावीर के निर्वाण के लगभग एक सौ भाठ वषं के पश्चात्‌ बारह वषे का भयंकर दुष्काल गिरचै से श्रमण सघ छिन्न-भिन्न हो गया । अनेक লু श्रमण प्रासुक आहार-पानी के अभाव मे अनन कर स्वगस्य हए । संघ की स्थित्ति दयनीय हो गई । आचायं भद्रबाहु कुछ अपने शिष्यो को लेकर महाप्राण ध्यान की साधना करने के लिए नेपाल पहुच गए । कितने ही श्रमण दक्षिणा चल से समद्र के समीपवर्ती प्रदेश मे चले गए। भूखे पेट आगमो का पुनरावतंन न होने से वे विस्मृत होने लगे । दुर्भिक्ष मिटने पर संव पटना मे एकत्र हुआ, उन्होंने ग्यारह अंग संकलित किये । पर दृष्टिवांद के ज्ञाता आचार्यं भद्रबाहु नही पघारे थे । उनके अत्तिरिक्त उसे कोई भी श्रमण जानता नही था, अतः संघ ने दो साश्रुभो को आचाय भद्रवह के उपपात मे भेजकर निवेदन करवाया किवे अतिरीघ्र ही पारलिपृत्र आकर संघ को दृष्टिवाद कौ वाचना प्रदान करें ।




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